Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 10
________________ 1 आन्तरिक अभिलाषा है । उनका आग्रह है कि धर्म की ओर केवल अन्ध-श्रद्धा न रखते हुए किसी भी क्रिया का आचरण करते समय वह युक्ति संगत एवं तर्कानुकूल हो, इस बारे में सोचना आवश्यक है । उससे तुम्हारा एवं समाज का हित हो, यह विश्वास हो जाना चाहिए । समाज निरपेक्ष वैयक्तिक साधना आत्म - साधना नहीं है । सभी के भीतर निवास किए हुए जीवात्मा को ध्यान में रखकर आत्म-हित एवं समाज-हित- दोनों का सुयोग्य समन्वय ही धर्म - रहस्य है । यही भूमिका इस ग्रन्थ में द्रष्टापन, सम्पर्कता एवं आधुनिक स्थिति के समालोचन से प्रकट की गई है । यही इस मुनि-दर्शन की विशिष्टता है । यही कारण है कि नर-नारी, श्रीमान् गरीब, महाजन हरिजन जैसे आत्मधर्म विरोधक भेद-भावों पर आघात किया है । पत्नी को देवता का स्थान देने की प्राचीन भारतीय संस्कृति की पार्श्व भूमि पर पत्नी को दासी मानने की विकृति आ गई है । जिस देश में नारी पूजा को देवता की प्रसन्नता माना जाता था, उसी में आज नारी हेय दृष्टि से देखी जाती है । यह धर्म नहीं, अधर्म है, इस प्रकार उद्घोष कर रहा है यह महान् सन्त । "नारी को बाहर में नहीं, अन्दर में देखना होगा ।" कितना मार्मिक है यह वचन । भगवान् महावीर आध्यात्मिक सिद्ध जरूर थे, साथ ही वे मानवतावादी समाज सुधारक भी थे । इस प्रकार का समन्वित उभयान्वयी सम्यक् - दर्शन जैन धर्मियों एवं साहित्यिकों ने समाज में प्रस्तुत किया ही नहीं - यह उनके दिल में जख्म था । Jain Education International - यह ग्रन्थ इस दिव्य जीवन - दर्शन का प्रभावी आविष्कार है । भगवान् महावीर उभयमुखी जोवन - क्रान्ति के प्रतीक थे । वे मात्र वीतराग ही नहीं, तीर्थंकर भी थे । भीतर से अक्रिय - अनासक्त, और बाहर में सक्रिय क्रान्ति - यह सब होते हुए ही वे मंगलकारी समन्वयवाद के प्रवर्तक थे । अपने इस जीवन - दर्शन का बोध सुयोग्य रीति से मुनिश्री ने करवाया ही है, साथ ही उस भूमिका से स्वयं एकरूप होकर आत्मोद्धार एवं जनोद्धार दोनों के समन्वय का परिणामकारी समाज प्रबोधन भी किया है । "महावीर का उभयमुखी आदर्श अपनाने की आज महती आवश्यकता है । आज कुछ साधक समाज और राष्ट्र - धर्म के नाम पर सर्वथा [ नो - ] For Private & Personal Use Only ---- www.jainelibrary.org

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