Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 2 Author(s): Amarmuni Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan View full book textPage 8
________________ मुनिश्री की पाप-पुण्य की मीमांसा में भी द्रष्टापन की झलक है। “कर्म का कर्ता नरक में और उस कर्म के फल का भोक्ता स्वर्ग में, कितनी विचित्र बौद्धिक विडम्बना है? रोटी कमानेवाला और बनाने-पकानेवाला पापी है और उसे धर्म के नामपर मुफ्त में प्राप्त कर खानेवाला पुण्यात्मा है- धर्मात्मा है।... कर्म और धर्म के बीच में विभाजन की दीवार हमने ऐसी खडी कर दी कि कर्म धर्म से शून्य हो गया और धर्म कर्म से । हर कर्म धर्म है, यदि उसमें जनहित का व्यापक आयाम है।” एकाध दुर्घटना हुई अथवा अनपेक्षित घटना घटी तो हम कहते हैं यह कर्म-धर्म-संयोग से हुआ। कर्म व धर्म का संयोग यानी दुर्घटना ही है, ऐसा पारम्परिक विचार ही इस शब्द योजना से ध्वनित होता है। यह बहुधा पाया जाता है कि धर्म करने के दावेदार मात्र कर्तव्य नहीं करते। मुनिजी की दृष्टि में धर्म ही जीवित शक्ति है। "हमें जीवित एवं सप्राण धर्म की आवश्यकता है, प्राणहीन मृत धर्म की नहीं।" यह है उनका इशारा- इंगित। वे स्पष्ट रूप से बताते हैं कि कइयों का धर्म श्रवण मात्र के लिए है, वह निरीक्षण के लिए नहीं है, परखने के लिए कतई नहीं है। 'पण्णा समिक्खए धम्म।' प्रज्ञा द्वारा धर्म का समीक्षण करना चाहिए यह भगवान महावीर का उपदेश पुनः कार्यान्वित हो, यही उनकी आन्तरिक चिन्ता है। उनका आग्रह है कि धर्म की ओर केवल अन्धश्रद्धा न रखते हुए किसी भी क्रिया के आचरण करते समय वह युक्तिसंगत एवं तर्कानुकूल हो, इस बारे में सोचना आवश्यक है। उससे तुम्हारा एवं समाज का हित हो, यह विश्वास हो जाना चाहिए। समाज निरपेक्ष वैयक्तिक साधना आत्मसाधना नहीं है। सभी के भीतर निवास किये हुए जीवात्मा को ध्यान में रखकर आत्महित एवं समाजहित दोनों का सुयोग्य समन्वय ही धर्म रहस्य है। यही भूमिका इस ग्रन्थ में द्रष्टापन, समर्पकता एवं आधुनिक स्थिति के समालोचन से प्रकट की गई है। यही इस मुनिदर्शन की विशेषता है। यही कारण है कि नर-नारी, श्रीमान-गरीब, महाजन-हरिजन जैसे आत्मधर्म विरोधक भेदभावों पर रास्त आघात किया है। पत्नी को देवता का स्थान देने की प्राचीन भारतीय संस्कृति की पार्श्वभूमि पर पली को दासी मानने की विकृति आ गई है। जिस देश में नारी की पूजा को देवताओं की प्रसन्नता माना जाता था, उसी में नारी हेय दृष्टि से देखी जाती है। यह धर्म नहीं बल्कि अधर्म है, इस प्रकार घोष कर रहा है यह सुधारक सन्त। 'नारी को बाहर में नहीं, अन्दर देखना होगा।' कितना मार्मिक है यह वचन! भगवान महावीर आध्यात्मिक सिद्ध जरूर थे, साथ ही वे मानवतावादी समाज-सुधारक भी थे। इस प्रकार का समन्वित उभयान्वयी सम्यक् दर्शन जैन धर्मीयों एवं साहित्यिकों ने समाज में प्रस्तुत किया ही नहीं। यह उनके दिल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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