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चिन्तन के क्षितिज पर
ठोकर में ही बच गये, इससे अधिक भी बहुत कुछ हो सकता था । यह तर्क हम अपने प्रत्येक अभाव और अलाभ के प्रति भी दे सकते हैं । हमें तब अनुभव होगा कि कष्ट की जहां असीमित सम्भावनाएं हैं, वहां हमें सीमित मात्रा में ही मिला । सापेक्ष सम्भावना-जन्य यह अनुभुति हमारे लिए दुःखानुभूति न होकर सुखानुभूति होती है और रक्षा कवच बनकर टूटने से बचा लेती है ।
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