Book Title: Chintan ke Kshitij Par
Author(s): Buddhmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 188
________________ १७८ चिन्तन के क्षितिज पर हम दोनों ने कुछ सकुचाते और कुछ साहस करते हुए कहा- "तुलसीरामजी स्वामी हमें बात भी नहीं करने देते, बहुत कड़ाई करते हैं।" आचार्यश्री ने पूछा--"यह सब वह तुम्हारी पढ़ाई के लिए ही करता है या अन्य किसी कारण से !" हमने कहा-“करते तो पढ़ाई के लिए ही हैं।" __ आचार्यश्री ने फरमाया-"तब फिर क्या शिकायत रह जाती है ! इस विषय में जो वह चाहेगा वैसा ही करेगा । तुम्हारी बात नहीं चलेगी।" __हम दोनों अवाक् थे । न कुछ कह पाये और न उठकर ही जा पाये। आचार्यश्री ने हमें एक कहानी सुनाते हुए कहा—“राजा का पुत्र गुरुकुल में पढ़ा करता था। अन्य छात्र भी वहां पढ़ते थे। कई वर्षों के पश्चात् पढ़ाई सम्पूर्ण हुई तब आचार्य राजकुमार को राजा के पास ले गये। मार्ग में राजधानी के बाजार में उन्होंने कुछ गेहूं खरीदे और गठरी राजकुमार के सिर पर रख दी। कुछ दूर तक ले चलने के पश्चात् वह गठरी उतरवा दी गई। वे सब राजसभा में पहुंचे। राजा ने आचार्य से पूछा-'राजकुमार का व्यवहार कैसा रहा!' आचार्य ने कहा'बहत अच्छा, बहुत विनययुक्त।' राजा ने राजकुमार से भी पूछा-'आचार्यजी ने तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया !' सकुचाते हुए राजकुमार ने कहा-'इतने वर्षों तक तो बहुत अच्छा व्यवहार किया परन्तु आज का व्यवहार उससे भिन्न था। आज बाजार में इन्होंने मुझसे भार उठवाया।' राजा ने खिन्न होकर आचार्य से इसका कारण पूछा। आचार्य ने कहा—'यह भी एक पाठ ही था। भावी राजा को यह ज्ञात होना चाहिए कि गरीब का श्रम कितना मूल्यवान् होता है।' आचार्यश्री ने कहानी का उपसंहार करते हुए कहा--"अध्यापक तो राजा के पूत्र से भी भार उठवा लेता है, तो फिर तुम्हारी शिकायत कैसे मानी जा सकती है ! तुलसी ने तो तुम्हें बात करने से ही रोका है। जाओ, मन लगाकर पढ़ा करो और वह कहे वैसे ही किया करो।" हम आशा लेकर गये थे, परन्तु निराशा पाकर लौट आये। दूसरे दिन मुनि तुलसी के पास पढ़ने के लिए गये तो मन में उथल-पुथल मची हुई थी कि कहीं हमारी शिकायत का पता लग गया तो क्या होगा। अर्थदान मोमसार की बात है आचार्यश्री कालूगणी ने हम दोनों को एक दोहा कंठस्थ कराया हर उर गुरु डर गाम डर, डर करणी में सार । तुलसी डर सो ऊबर, गाफिल खावै मार ॥ आचार्यश्री ने उसका अर्थ भी हमें समझाया। उस समय की समझ के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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