Book Title: Chintan ke Kshitij Par
Author(s): Buddhmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 193
________________ शक्ति-स्वरूपा जैन साध्वियां १८३ में मुनि जीतमलजी (जयाचार्य) का चातुर्मास-प्रवास चूरू में हुआ। सरदारबाई ने उनके पास तत्त्वज्ञान प्राप्त किया और सुदृढ़ श्राविका बन गयीं। उस समय से उनके मन पर धर्म का रंग ऐसा चढ़ा कि फिर किसी दूसरे रंग के लिए अवकाश ही नहीं रहा। ___सरदारबाई कभी अपने पीहर तथा कभी ससुराल में रहा करती थीं। सं० १८६४ के पोषमास में वे फलौदी में थीं तभी मुनि जीतमलजी (जयाचार्य) का वहां पदार्पण हुआ। उस अप्रत्याशित सत्संग का उन्होंने काफी लाभ उठाया। उनके मन का धार्मिक रंग और गहरा हो गया। वे तब दीक्षा ग्रहण कर संन्यस्त जीवन जीने की बात सोचने लगीं । परन्तु उनके सम्मुख एक बड़ी बाधा थी कि ससुराल वालों से दीक्षा के लिए आज्ञा कैसे ली जाए? उनके दो जेठ तथा तीन देवर थे। घर में बड़े जेठ बहादुरचन्दजी का आदेश-निर्देश चलता था। वे बहुत कड़े स्वभाव के व्यक्ति थे। दूसरी बाधा यह भी थी कि तत्कालीन सामाजिक पद्धति किसी भी बहू को अपने से पद में बड़े पुरुष के साथ बोलने की आज्ञा नहीं देती थी। इतना ही नहीं, उसके सामने से गुजरना भी मर्यादा-भंग माना जाता था। उन्होंने तब जेठानी जी को माध्यम बनाकर आज्ञा लेने का उपक्रम किया । बहादूरचन्दजी ने सारी बातें सुनीं और फिर रोष व्यक्त करते हुए कहा-"करोड़पतियों की बेटी और करोड़पतियों की बहू भी भीख मांगेगी तो दरिद्र क्या करेंगे ? बहू से कह दो कि फिर कभी ऐसी बात मेरे सामने न आये।" सरदारबाई चुप हो गयीं। आगे कुछ कहलाने का वे साहस नहीं जुटा पायीं। धर्म का रंग अन्दर-ही-अन्दर पकता रहा, घुटता रहा, पर आगे का द्वार अवरुद्ध ही दिखाई दिया। प्राणों की बाजी दो वर्ष तक शान्त साधना करते रहने के पश्चात् सरदारबाई को लगा कि बलिदान के बिना कोई कार्य होने वाला नहीं है । तब सं० १८९६ में उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक आज्ञा-पत्र प्राप्त नहीं कर लूंगी तब तक बेले-बेले पारण (दो दिनों के अन्तर से भोजन) किया करूंगी। साथ ही प्रति मास एक पंचोला (पांच दिनों का उपवास) या उससे अधिक कोई तपस्या करती रहूंगी। बहादुरचन्दजी को जब उनकी प्रतिज्ञा का पता चला तो उन्होंने कहा-- "किसी को भूखों मरना हो तो उसकी इच्छा, पर हम यह कभी नहीं होने देंगे कि हमारे घर का कोई व्यक्ति भीख मांग कर खाये और हमारे समाज में हमारी नाक कटवाए।" तपस्या चलती रही परन्तु जेठ पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ तब सरदारबाई ने दबाव डालने के लिए घर का भोजन ग्रहण करने का त्याग कर दिया। इस पर जेठ ने उनके लिए घर से बाहर जाने की रोक लगा दी । एक-एक कर छह दिन निराहार निकल गये तब जेठ को झुकना पड़ा। अपने पुरोहित के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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