Book Title: Chintan ke Kshitij Par
Author(s): Buddhmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 217
________________ निष्ठाशील श्रावक : श्री बिहारीलालजी जैन २०७ अनेक जिज्ञासाएं और आशंकाएं उनके मन को घेरे रहती थीं। मेरे पास बैठकर वे बहुधा उन विषयों की चर्चा करते रहते थे। मैं अपनी उस अवस्था में तर्क-वितर्क पूर्ण चर्चाओं में काफी रस लेता था । अपने अनुभव की सीमा में हर तर्क को समाहित करने का भी प्रयास किया करता था । ऐसे प्रसंगों में रुचि रखने वाले अन्य लोग भी श्रवणार्थ वहां बैठ जाते थे । एक बार सरदारशहर में किसी ऐसी ही चर्चा-गोष्ठी में मैं अपने समाधान प्रस्तुत कर रहा था। युवकों को कितना समाहित कर सका, यह तो कहना कठिन है, परन्तु यह कहा जा सकता है कि अपने तूणीर के सब तीर वे समाप्त कर चुके थे। दूसरे दिन फिर आने की बात कहकर वे प्रस्तुत प्रसंग को सम्पन्न कर चले गये । श्रवणार्थियों में से कुछ लोग प्रश्नों और उत्तरों की अपने-अपने प्रकार से कुछ देर तक समीक्षा करते रहे, फिर धीरे-धीरे वे भी चले गए । श्रवणार्थियों में उस दिन बिहारीलालजी भी थे। जब दो-चार भाई ही मेरे पास रह गए तब उन्होंने आगे आकर मुझे वन्दन किया और कहने लगे — आपके उत्तर सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। स्पष्ट और तर्कपूर्ण उत्तर देने का यह प्रकार मुझे बहुत ही पसंद आया । उक्त प्रशंसात्मक उद्गारों के साथ-साथ उन्होंने मेरे सादुलपुर निवासी होने के कारण भी अपनी गर्वानुभूति अभिव्यक्त की । मेरी स्मृति के अनुसार बिहारीलाल जी के साथ मेरा यही प्रथम परिचय था । उक्त परिचय के पश्चात् तो जब भी वे गुरु-दर्शन को आते और यदि मैं वहां होता तो कुछ समय मेरे पास अवश्य व्यतीत करते । मैं भी उनके द्वारा प्रस्तुत की गई बातों में रुचि लेता था । निकटता से मैंने कलकत्ता में तीन चातुर्मास किए हैं । सन् १९७० और ७१ के दो चार्तुमास संलग्न किए, उनके शेष काल में भी प्रायः वहीं उपनगरों में विहार करता रहा । उसके पश्चात् एक चातुर्मास गोहाटी में करके पुनः लौटा तब सन् १९७३ का चातुर्मास भी कलकत्ता में ही किया । इन वर्षों में मुझे बिहारीलालजी को निकटता से जानने एवं परखने का अवसर मिला। मैंने पाया कि उनमें साधु-साध्वियों के प्रति अनन्य भक्ति है । सफल व्यापारी होने के साथ ही वे धर्मसंघ के प्रति निष्ठा रखने वाले एक सुश्रावक भी थे । कलकत्ता के उस लम्बे प्रवास में अनेक बार के संपर्क के पश्चात् मैंने देखा कि वे मेरे साथ अपेक्षाकृत खुल कर बात करने लगे थे । अपनी व्यक्तिगत समस्याओं तथा मानसिकताओं के विषय में भी वे मेरे से निस्संकोच बात कर लेते थे । मैंने उनको सदैव सहिष्णु और स्पष्ट पाया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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