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२१० चिन्तन के क्षितिज पर
बिहारीलालजी ने पलटते ही कहा-"बस-बस, रहने दीजिए। मैं आप दोनों के बीच में शूर्पणखा बनना नहीं चाहता" और वह अनुत्तरित प्रश्न उनकी हंसी के एक जोरदार ठहाके के साथ वहीं समाप्त हो गया।
नेता नगरी एक बार बिहारीलालजी ने मुझसे कहा—'कलकत्ता की एक यात्रा और करिये।"
मैंने कहा- "मैं कलकत्ता दो बार जा आया। तीन चातुर्मास कर लिये । अब तीसरी यात्रा के लिए क्यों कह रहे हैं ? अब तो युवावस्था के सिंघाड़ों को ले जाने की बात करनी चाहिए।"
उन्होंने कहा--"अभी तक तो आचार्यश्री भी स्वयं को युवक मानते हैं। आप तो उनसे छह वर्ष छोटे हैं, तब फिर आपके वृद्ध होने का तो प्रश्न ही नहीं है । हम तो आपके कथन के अनुसार युवक सिंघाड़े की ही मांग कर रहे हैं।" ____ मैंने वार्ता के रुख को बदलने की दृष्टि से कहा- "संतों की अपेक्षा सतियों के सिंघाड़े अधिक हैं; अतः उन्हीं में से किसी को चुनना अधिक उपयोगी होगा।"
बिहारीलालजी यह तो ठीक ही है, हमारे लिए तो साधु और साध्वीदोनों ही शिर के मोड़ हैं, पर आप अपनी बात के बीच में साध्वियों की बात क्यों लाते हैं ?
मैं-साधुओं की अपेक्षा साध्वियां कलकत्ता के लिए अधिक उपयुक्त रहती
बिहारीलालजी यह बात तो गले उतरने वाली नहीं कही आपने । साधुओं के पास आने-जाने तथा बातचीत करने की हम लोगों को जितनी स्वतंत्रता मिलती है, उतनी साध्वियों के पास नहीं। दायित्व बढ़ जाता है किन्तु अवसर घट जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनकी अधिक उपयुक्तता कैसे मानी जा सकती है ? ... मैं—आपने तो अपनी सुविधा और दायित्व की दृष्टि से ही सोचा है, पर अन्य दष्टिकोण भी तो हो सकते हैं।
बिहारीलालजी-अन्य दृष्टिकोण कौन-सा हो सकता है, यह भी बतला दीजिये।
मैं—कलकत्ता नेताओं की नगरी है। वहां आनुपातिक रूप से नेता कुछ अधिक ही हैं। उनसे सामंजस्य बिठाकर चलने में सतियां अधिक सफल रह सकती हैं, क्योंकि वे नाी होने के कारण प्रकृति से कोमल और लचीली होती हैं, संतों को प्रायः उतना लचीला बनने में कठिनाई महसूस होती है। ___बिहारीलालजी—यह तो आपने बिलकुल नयी बात सामने रख दी । नेताओं को इस पर सोचना चाहिए।
__ मैं-आप भी तो उन्हीं में से एक हैं। Jain Education International
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