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निष्ठाशील श्रावक : श्री बिहारीलालजी जैन
आत्मीय भाव बिहारीलालजी जैन राजगढ़ के थे, मैं सादुलपुर का हूं। दोनों नगर भिन्न होते हुए भी इतने सटे हुए हैं कि भिन्नता की सीमा को पहचान पाना कठिन है। राजस्थान में अनेक राजगढ़ हैं, अतः यहाँ के स्टेशन, डाकघर आदि सरकारी कार्यालय सादुलपुर के नाम से हैं। इस उपक्रम से दोनों नगरों की अभिन्नता और भी गहरी हो गई। बिहारीलालजी के मन में मेरे प्रति जो सामीप्य की भावना थी, उसमें अवश्य ही अनेक कारण रहे होंगे, परन्तु प्रारम्भिक कारणों में एक यह भी रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं कि मैं उन्हीं के नगर का निवासी हं। अपने गांव के संतों के प्रति अतिरिक्त आत्मीयता का होना कोई असहज बात नहीं है।
मेरा उनसे प्रथम परिचय कहां और कब हुआ, यह सुनिर्णीत कह पाना तो कठिन है, फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि वह राजगढ़ या सादुलपुर में हआ हो, यह सम्भव नहीं, क्योंकि मैं साढ़े ग्यारह वर्ष की बाल्यावस्था में ही दीक्षित हो गया था। तब से अब तक मुनिचर्या की यायावरी में मुझे अपने गांव की ओर जाने तथा वहां ठहरने के अवसर कम ही उपलब्ध हुए। बिहारीलालजी अपनी बाल्यावस्था में वहां कितने रहे, इसका मुझे पता नहीं, पर बाद में अपनी व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार वे प्रायः कलकत्ता में ही रहने लग गये। जब-तब थली में आने तथा आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित होने के अवसर आये होंगे तब उन्हीं में से किसी अवसर पर वे मेरे से परिचित हुए, ऐसा कहा जा सकता है । मैंने प्रारम्भ से ही अपने प्रति उनमें एक गहरा आत्मीयभाव लक्षित किया है।
प्रथम परिचय मेरी युवावस्था के समय की बात है । उस समय मध्याह्न तथा रात्रिकाल में समाज के अनेक युवक मेरे पास बैठा करते थे। वे प्रायः पढ़े-लिखे होते थे या पढ़ रहे होते थे, अतः साधु-साध्वियों से उनका संपर्क कम ही रह पाता था। धर्म के विषय में
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