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१९६ चिन्तन के क्षितिज पर
रामसिंहजी वेष बदलकर नगर में घूमा करते थे। अवसर देखकर कई बार जयाचार्य के दर्शन हेतु हवेली में आ जाया करते थे। नरेश के साथ बहुधा ठाकुर नारायणसिंहजी रहा करते थे। एक बार हवेली में प्रविष्ट होते समय ठाकुर साहब ने किसी प्रसंग पर उन्हें 'अन्नदाता' कहा । सींधड़जी के नौकर ने वह शब्द सुना तो जान गया कि नरेश आये हैं । नौकर ने भैरूलालजी को सारी बात बतलाई तो वे द्वार पर आकर उनके बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगे। नरेश आये तो सींधड़जी ने मोहर भेंट करनी चाही। नरेश मुस्कराकर बोले-अच्छा तो तुमने मुझे पहचान लिया है। सींधड़जी ने बड़ी सुघड़ता से उत्तर दिया कि सूर्य को कौन नहीं पहचान लेता? नरेश उनके उस कथन से बड़े प्रसन्न हुए। वे यह कहकर आगे बढ़ गये कि यहां तो हम दर्शन करने आये थे, भेंट लेने नहीं। ___ सं० १९३८ की श्रावण पूर्णिमा के दिन सींधड़जी अचानक रुग्ण हो गये। जयाचार्य वहीं हवेली में नीचे चातुर्मास कर रहे थे। वे स्वयं वृद्ध थे, फिर भी मध्याह्न और सायं दो बार ऊपर जाकर उन्हें दर्शन दिये । जयाचार्य के मंगल उपदेश से लालाजी को बड़ी सांत्वना मिली। वे उसी रात्रि को दिवंगत हो गये। बड़ा परिवार था, बहुत लोगों के आने की सम्भावना थी, अतः जयाचार्य वहां से सरदारमलजी लूनिया के मकान में पधार गये। लालाजी ने प्रार्थना करायी तब छठे दिन वापस वहीं पधार गये। वहां भाद्र कृष्णा १२ को जयाचार्य भी दिवंगत हो गये । भैरूलालजी ने गुरु विरह नहीं देखा । वे उनसे १२ दिन पूर्व ही प्रस्थान कर गये थे।
५. पनराजजी लूनिया पनराजजी लूनिया श्रद्धाशील और धनवान व्यक्ति थे। चापलुस मित्र मण्डली की कुसंगति ने उन्हें जुआ खेलने के व्यसन में डाल दिया। परिवार के लोग उससे बहुत दुःखी हुए। घर में सबसे बड़े वे ही थे, अतः कहने-सुनने की भी एक सीमा ही थी। पत्नी, पुत्र आदि के कथन को वे सुना-अनसुना करते रहे । सब उपाय व्यर्थ हो गये तब उनकी पत्नी तथा पुत्र सरदारमलजी ने एक उपाय सोचा और उसी के अनुसार पनराजजी से कहा कि पूरे परिवार को जयाचार्य के दर्शन करा दें। उन्होंने तब पूरे परिवार के साथ पाली में दर्शन किये । पत्नी और पुत्र ने एकान्त में जयाचार्य को सारी स्थिति बतलायी और उन्हें किसी भी तरह जुए का त्याग करा देने की प्रार्थना की।
जयाचार्य ने पनराजजी को उपदेश दिया तो वे लज्जित तो बहुत हुए परन्तु कह दिया कि मेरे से छोड़ा नहीं जाता। कई प्रकार से ऊंचा-नीचा लेने पर भी नहीं माने तब एक दिन जयाचार्य ने आदेश के रूप में कहा---हाथ जोड़ो ! उन्होंने हाथ जोड़े तो उन्होंने जुए का त्याग कराकर कहा-मैंने तुम्हारा मन न होने पर भी
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