Book Title: Chintan ke Kshitij Par
Author(s): Buddhmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 210
________________ २०० चिन्तन के क्षितिज पर चन्दनमलजी दुगड़ आदि गिने जाते हैं। आपकी चर्चा करने की इच्छा हो तो उन्हें कह दूं। मुनि माधोलालजी ने कोई उत्तर न देकर चुप रहने में ही लाभ समझा। उनके लिए तो सूरजमलजी भारी पड़ रहे थे। ११. गुलाबचन्दजी लूणिया गुलाबचन्दजी लूणिया के पूर्वज जैसलमेर में रहते थे, फिर दिल्ली में बस गये। सं० १८७० में गोरुलालजी ने जयपुर को निवास स्थान बनाया। गुलाबचन्दजी का जन्म सं० १९३५ में हुआ। उन्होंने मुनि पूनमचन्दजी के पास अच्छा तत्त्वज्ञान प्राप्त किया। चर्चा-वार्ता में बड़े निपुण थे। गाने की विशेष योग्यता थी। गीतिकाएं, व्याख्यान तथा तात्त्विक ग्रंथ लिखते थे। घर में ग्रंथों तथा आगमों का अच्छा संग्रह रखते थे। जवाहरात तथा प्राचीन वस्तुओं का व्यापार था। पूरी प्रामाणिकता से कार्य करते थे। दुकान पर आने वाले विदेशियों में से अनेक को मुनि-दर्शन करवाते थे। बारह व्रत धारे हुए थे। १२. लिछमनदासजी खारड़ लिछमनदासजी श्रीमाल जाति में खारेड गोत्र के थे। उनके पूर्वज रोहतक के पास मेहम गांव में आकर जयपुर में बसे थे । जवाहरात का कार्य किया करते थे। लिछमनदासजी के एक छोटे भाई हुकमचन्दजी थे जो कि माणकगणि के पिता थे। वे मल्ल विद्या में अधिक रुचि रखा करते थे । अतः प्रतिदिन अखाड़े में जाकर बल आजमाया करते थे। परन्तु यह सब वे बड़े भाई से छिपाकर ही किया करते थे। एक बार वे फतेहटीबा में होने वाले किसी दंगल में गये। किसी ने यह बात लिछमनदासजी से कह दी, वे तत्काल वहां गये और उनको बुलाकर घर ले आये। उपालम्भ देते हुए कहा-हम जौहरी हैं, कुश्ती लड़ना हमारा कार्य नहीं है। वे उन्हें व्यापार के निमित्त बम्बई, सूरत आदि दूरवर्ती क्षेत्रों में भेजते रहते । एक बार बम्बई से वापिस आते समय मार्ग में भील, डाकुओं ने उन्हें घेरकर लूट लिया और मार डाला। उनके बाल-बच्चों का भरण-पोषण लिछमनदासजी ने ही किया। माणकगणि को विराग हुआ तब लिछमनदासजी ने बड़ी कठिनाई से आज्ञा दी। स्वय जयाचार्य को उसमें प्रेरक बनना पड़ा। ___ लिछमनदासजी अच्छे तत्त्वज्ञ श्रावक थे। सेवापरायण भी थे प्रतिवर्ष दर्शन सेवा का लाभ लेते थे जहां जाते वहां धर्म की चर्चा करते । बम्बई में सूरत निवासी आनन्दे भाई (मगन भाई के दादा) आदि को समझाने का श्रेय उन्हीं को है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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