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युग-परिप्रेक्ष्य में मर्यादा - महोत्सव
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पर मनाया जाता है । इस अवसर पर रुग्णता, वृद्धता या आज्ञात आदि कुछ अपवादों के अतिरिक्त शेष सभी साधु-साध्वियां पदयात्रा करते हुए आचार्यश्री के सान्निध्य में उपस्थित होते हैं । साधारणतया तीन सौ, चार सौ से छह सौ तक साधु-साध्वियां तथा पचीस-तीस हजार से पचास हजार तक श्रावक-श्राविका गण उपस्थित होकर आचार्यश्री के मार्ग-दर्शन में कृत कार्यों के प्रति चिंतन-मंथन तथा करणीय कार्यों का निर्धारण करते हैं ।
तेरापंथ जैन धर्म की एक शाखा है । इसका उद्भव वि० सं० १८१७ आषाढ़ पूर्णिमा को हुआ । इसके आद्य प्रणेता आचार्य श्री भिक्षु ने नवोद्गत संघ के बद्धमूल हो जाने के पश्चात् सुव्यवस्थित प्रगति और सुस्थिर अस्तित्व के लिए एक संविधान बनाया। वह वि० सं० १८५६ माघ शुक्ला सप्तमी को सम्पन्न हुआ । उसी दिन को आधार मानकर तेरापंथ के चतुर्थ आचार्यश्री जयाचार्य ने सं० १६२१ में उक्त संविधान के उपलक्ष्य में मर्यादा - महोत्सव मनाने की घोषणा की। तब से यह बराबर प्रति वर्ष मनाया जा रहा है ।
यह महोत्सव आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं का एक मूर्त्त प्रतीक बन गया है । समान आचार, समान विचार और समान चिंतन की भूमिका का निर्माण करने में भी इसका महनीय योगदान रहा है। संघ के योगक्षेम में आधारभूत उन मर्यादाओं में से कुछ का यहां उल्लेख करना प्रसंगोपात्त ही होगा ।
१. तेरापंथ में एक ही आचार्य होगा और सभी साधु-साध्वियां उसी के निर्देश में चलेंगे।
२. सबके लिए विहार या चातुर्मास का निर्धारण आचार्य द्वारा ही होगा ।
३. सभी दीक्षित एकमात्र आचार्य के शिष्य होंगे, किसी को अपना व्यक्तिगत शिष्य बनाने का अधिकार नहीं होगा ।
४. पूरे परीक्षण के पश्चात् योग्य व्यक्ति को ही अभिभावकों की लिखित आज्ञा प्राप्त होने पर दीक्षित किया जा सकेगा ।
५. उत्तराधिकारी की नियुक्ति करने का अधिकार एकमात्र आचार्य को ही
होगा ।
६. चर्या में उपयोगी प्रत्येक वस्तु समग्र संघ की होगी । किसी का उन पर व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं होगा ।
७. संघ का प्रत्येक सदस्य संविभाग का अधिकारी होगा ।
८. पूर्व मर्यादाओं में परिवर्तन, परिवर्धन या संशोधन तथा नयी मर्यादाओं का निर्माण आचार्य द्वारा नियुक्त समिति में सुचिंतित होने के पश्चात् आचार्य की स्वीकृति होने पर ही मान्य होगा ।
६. संघ की साधना पद्धति में पूर्ण विश्वासी की ही सदस्यता मान्य होगी । अन्यथा उसे अनिवार्यतः सदस्यतामुक्त होना होगा ।
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