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अणुव्रत के सन्दर्भ में व्यक्ति और समाज १२६
एक दूसरे के पूरक मूल बात यह है कि व्यक्ति-सुधार और समाज-सुधार दोनों परस्पर अनूस्यूत हैं, जैसे कि वस्त्र में ताना-बाना होता है। दोनों में से न किसी एक की उपेक्षा की जा सकती है और न किसी को गौण ही कहा जा सकता है। उनमें से यदि किसी की मुख्यता या गौणता का प्रतिपादन किया जाता है तो वह अपेक्षा-दृष्टि से ही होता है, सर्वथा नहीं। जितना सत्य यह है कि व्यक्ति-सुधार के बिना समाज-सुधार अस्तित्व में नहीं आ सकता, उतना ही यह भी सत्य है कि समाज-सुधार के अभाव में व्यक्ति सुधार का टिक पाना कष्ट-साध्य हो जाता है। व्यक्ति और समाज एकदूसरे के विरोधी न होकर पूरक होते हैं। उसी तरह उनके सुधारों में भी कोई विरोध न होकर पूरकता ही होती है।
समन्वित रूप समाज किसी भी आदर्श के सर्वोच्च शिखर तक नहीं पहुंच पाता । वह पूरा प्रयास करने पर भी मध्यम कोटि तक ही पहुंच सकता है, परन्तु व्यक्ति वहां तक पहुंच सकता है। कहना तो यह चाहिए कि व्यक्ति अपनी साधना से जिस शिखर तक पहंचता है, वही फिर समाज के लिए आदर्श या सर्वोच्च शिखर बन जाता है । इसलिए कहा जा सकता है कि आत्म-सुधार समाज-सुधार के लिए आदर्श प्रस्तुत करता है। उसी तरह इस आदर्श की ओर बढ़ता हुआ समाज व्यक्ति के लिए और उच्च शिखरों तक चढ़ने की भूमिका तैयार करता है। ___ अणुव्रत-आन्दोलन आत्म-सुधार और समाज-सुधार का समन्वित रूप है। अणुव्रत की नियमावली इसका उदाहरण है । उस नियमावली के अनुसार चलने वाला तो व्यक्ति ही होता है, परन्तु उससे सामाजिक वातावरण में परिवर्तन आता है। यह सम्भव नहीं है कि फूल खिले और वातावरण सुगन्धित न हो पाये । फल का खिलना यद्यपि व्यक्ति का खिलना ही है, परन्तु सुगन्धि का फैलना उसे सामूहिक या सामाजिक बना देता है।
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