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उस समय के मुनि नथमल : आज के युवाचार्य महाप्रज्ञ १७५
में । प्रशिक्षण के लिए हम दोनों मुनि तुलसी (आचार्य तुलसी) को सौंपे गये। समवयस्कता के साथ-साथ तभी से हम दोनों साथी और सहपाठी बन गये । यद्यपि उस समय अन्य भी अनेक बाल-साधु थे, परन्तु हम दोनों की पटरी कुछ ऐसी बैठी कि प्रायः हर क्रिया और प्रतिक्रिया में हम एक साथ रहते । हमारे नाम भी प्रायः सभी के मुख पर समस्तपद की तरह एक साथ रहते थे। पूज्य कालूगणी हमें 'नत्थूबुद्ध' कहकर पुकारते थे और हमारे अध्यापक मुनि तुलसी 'नथमलजी-बुद्धमलजी' कहा करते थे।
हंसने का दण्ड बाल-चापल्य के कारण हम दोनों हंसा बहुत करते थे । सकारण तो कोई भी हंस लेता है, पर हम अकारण भी हंसते थे। पाठ याद करते समय हम दोनों को कमरे के दो कोनों में भींत की ओर मुंह करके बिठाया जाता था, फिर भी झुक झुक कर हम एक-दूसरे की ओर देखते और हंसते। छोटी-मोटी कोई भी घटना या स्थिति हमारे हंसने का कारण बन जाती थी। हम अभिधान चितामणि कोष कंठस्थ कर रहे थे। मुनि तुलसी के पास वाचन करते समय जब 'पेढालः पोट्टिलश्चापि' जैसे विचित्र उच्चारण वाले नाम हमारे सामने आये तो हम दोनों अपनी हंसी रोक नहीं पाये। कठोर अनुशासन पसंद करने वाले हमारे अध्यापक मुनि तुलसी ने उस उदंडता के लिए कई दिनों तक हमारा शिक्षण बंद रखा। इसी प्रकार मेवाड़ से आये एक व्यक्ति की फटी-फटी-सी बोली सुनकर भी हम अपनी हंसी नहीं रोक सके और दंड स्वरूप कई दिनों तक शिक्षण बंद रहा।
बच गए तारानगर की बात है । मैं पानी पीने के लिए गया। उसी समय मुनि नथमलजी भी वहां पहुंच गये। वे मुझे हंसाने का प्रयास करने लगे । बहुत देर तक उन्होंने मुझे पानी नहीं पीने दिया । आखिर झल्लाकर मैंने उनको धमकी दी कि मुनि तुलसी के पास मैं आपकी शिकायत कर दूंगा। तब वे रुके और मैं पानी पी सका। उस समय हम दोनों को यह पता नहीं था कि पास के कमरे से महामना मगनलालजी स्वामी हमारी कारस्तानी देख रहे हैं। सायंकालीन भोजन परोसते समय मंत्री मुनि ने कालूगणी के सम्मुख ही हमसे पूछा कि आज मध्याह्न में पानी पीते समय तुम दोनों क्या कर रहे थे ? हमारी तो भय के मारे मानों घिग्घी ही बंध गई । मंत्री मुनि ने हंसते हुए हमारी नोक-झोंक कालूगणी को सुनाई और कहा--दोनों ही बहुत चंचल हैं । आचार्यश्री ने अर्थभरी दृष्टि से हमारी ओर देखा और मुस्करा दिये । हम दोनों तब आश्वस्त हो गये कि बच गये।
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