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सदाचार से जुड़े प्रश्न १४१ है, वहां भी नहीं । अहिंसा का सिद्धान्त सामाजिक न्याय से कहीं ऊंचा है, वह उसका परिष्कर्ता है । सामाजिक न्याय बहुधा बहुमत की धारणाओं के आधार पर आश्रित होता है, जबकि 'सत्य' उससे पृथक भी हो सकता है । ईसा और सुकरात को खतरनाक व्यक्ति घोषित कर मृत्युदण्ड की व्यवस्था करने वाला तत्कालीन न्याय ही तो था । पर क्या वह ठीक था? गान्धी को गोली मारने वाले गोड्से ने भी अपनी तथा अपने पक्ष-पोषकों की दृष्टि में हिन्दू जाति के लिए खतरनाक व्यक्ति को मारकर औचित्य का ही तो पालन किया था। आज ईसा, सुकरात और गान्धी महापुरुष माने जाते हैं। न सामाजिक न्यायालय की स्वीकृति उनकी महत्ता को रोक पाई और न पक्ष विशेष की स्वीकृति । इसी प्रकार आज की परिभाषा में जो आततायी हैं, हो सकता है कि कालान्तर में वे जनमान्य नेता या मानवता के पथदर्शक भी मान लिये जाएं।
जो वस्तुतः आततायी होते हैं और जिन्हें न्यायालय भी आततायी घोषित करता है, उनके वध में भी यह बात सोचने की रह जाती है कि कोई भी व्यक्ति यदि आततायी बनता है तो उसमें क्या समस्त दोष उसी का ही होता है, अथवा समाज के वातावरण तथा समाज की अपूर्णताओं का भी उसमें सहयोग होता है ? यदि सामाजिक दोषों ने उसे आततायी बनने को बाध्य किया है तो न्यायालय आततायी का वध करने की आज्ञा देते समय क्या पूर्णतः उसके साथ न्याय ही करता है ? ____ मनोविज्ञान बड़े से बड़े दोषी को भी एक रोगी मानने को कहता है । रोगी को मिटा देना ही रोग को मिटा देना नहीं हो सकता। आज तक के उपाय प्रायः रोगी को मिटा देने के ही रहे हैं--पर अब अहिंसा ने मनुष्य को एक नयी दृष्टि प्रदान की है । वह आततायी को एक रोगी मानती है और उसके उपचार में धैर्य और सहनशीलता के अतिरिक्त करुणा और सहानुभूति की भी बहुत बड़ी आवश्यकता है। कुछ सामाजिक बाध्यताएं उसे आततायी बना सकती है तो कुछ सहानुभूति उसे एक श्रेष्ठ नागरिक भी बना सकती है। मनुष्य में जो सुधार सम्पूर्ण जीवन में नहीं हो पाता वह उसके अन्तित क्षणों में सम्पन्न हो सकता है।
प्रश्न-नैतिकता की परिभाषा हर काल में बदलती रही है। तब फिर वास्तविक नैतिकता किसे कहा जाए?
उत्तर-सामाजिक जीवन को अनिष्ट मार्ग पर बढ़ने से रोकने के लिए जो सामूहिक प्रतिबंध लगाए जाते हैं, मेरी दृष्टि में वही नैतिकता के नियम होते हैं। ज्ञान-विज्ञान की अभिवृद्धि के साथ-साथ बदलती हुई परिस्थितियों के कारण सामाजिक जीवन पद्धति में परिवर्तन अनिवार्य हो जाता है। फिर भी हर परिवर्तन के साथ जीवन-क्रम को उच्च से उच्च स्तर तथा सत्य से अधिकाधिक अनुप्राणित बनाने का प्रयास ही उसका लक्ष्य होता है। इस दृष्टिकोण से यदि किसी को
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