Book Title: Chintan ke Kshitij Par
Author(s): Buddhmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 182
________________ १७२ चिन्तन के क्षितिज पर नहीं थी, परन्तु उन्होंने आचार्य बनने के पश्चात् भी उस कार्य को चालू रखा। साध्वी-समाज में विद्या का विकास उन्होंने आचार्य बनने के पश्चात् ही किया। अपने आचार्य पद की प्रारम्भ कालीन कठिनाइयों से जूझते हुए भी उन्होंने साध्वियों को पूरा समय दिया और अध्ययन में यथासम्भव नैरंतर्य बनाये रखा। उसी का यह फल है कि साधुओं के समान ही आज तेरापंथ का साध्वी-समाज भी प्रत्येक विषय में सुदक्ष और कार्यक्षम है। पाठ्यक्रम का निर्धारण अनेक वर्षों के अध्यापन-कार्य ने आचार्यश्री को यह अनुभव कराया कि अध्ययन क्षेत्र में एक व्यवस्थित क्रमिकता की आवश्यकता है। उसके अभाव में साधारण बुद्धि वाले अनेक विद्यार्थियों का श्रम निष्फल जा रहा था। सम्पूर्ण चंद्रिका अथवा कालूकौमुदी कण्ठस्थ कर लेने तथा उसकी साधनिका कर लेने पर भी उनका विकास नहीं हो पाया था। विद्यार्थियों का श्रम निष्फल न जाए तथा उनके प्रशिक्षण में त्वरता आये इसलिए एक पाठ्य प्रणाली निर्धारित की गयी। उसका नाम दिया गया-'आध्यात्मिक शिक्षाक्रम।' सात वर्षों के इस शिक्षाक्रम के तीन विभाग हैं-योग्य, योग्यतर और योग्यतम । अनेक विषयों में निष्णात बनने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए यह क्रम बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ। कालान्तर में इस पाठ्यक्रम में अनेक आवश्यक परिवर्तन भी किये जाते रहे हैं। श्रेयोभागी आचार्यश्री ने हम लोगों को पढ़ाना प्रारम्भ किया था, तब वे स्वयं अध्ययनरत छात्र थे। लगभग १८-१६ वर्ष की उनकी अवस्था थी। आज वे अपनी अवस्था के सतत्तर वसंत देख चुके हैं। एक विश्व-विश्रुत धर्माचार्य बन चुके हैं। अनेक उत्तरदायित्वों से घिरे हुए हैं। प्रत्येक क्षण को निचोड़कर काम में लेते रहने पर भी समय की कमी अनुभव करते रहते हैं। इस स्थिति में भी उनका अध्यापक आज भी पूर्ववत् जागरूक है। विभिन्न कार्यों के बीच से आज भी वे समय निकालते और बाल साधुओं तथा साध्वियों को विभिन्न विषयों का प्रशिक्षण देते देखे जा सकते हैं। वे जब पढ़ाते हैं तो अध्यापन-रस में सराबोर होकर पढ़ाते हैं । मूल पाठ को तो वे पूर्णतः स्पष्ट करते ही हैं, साथ ही अनेक शिक्षात्मक बातें भी इसी प्रकार से जोड़ देते हैं कि पाठ की क्लिष्टता मधुमयता में बदल जाती है। नव-शिक्षार्थियों को शब्द-रूपे और धातु रूप पढ़ाते समय वे जितनी प्रसन्न मुद्रा में देखे जा सकते हैं, उतने ही किसी काव्य या दार्शनिक ग्रंथ के पाठन में भी देखे जा सकते हैं। सामान्यत: उनकी वह प्रसन्नता ग्रंथ की साधारणता या असाधारणता को लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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