Book Title: Chintan ke Kshitij Par
Author(s): Buddhmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 152
________________ १४२ चिन्तन के क्षितिज पर वास्तविक नैतिकता के पथ पर प्रतिष्ठित करना हो, तो वह सत्य ही हो सकता है । जिस प्रकार एक कमरे में प्रविष्ट होने के लिए अनेक द्वार होते हैं । उनमें से विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न द्वारों की प्रमुखता बदलती रहती है । द्वारों की प्रमुखता का बदलते रहना केवल सुविधा के लिए होता है । मूल बात तो कमरे में प्रविष्ट होना है । उसी प्रकार नैतिकता की बदलती हुई परिभाषाएं सत्य के कमरे में प्रविष्ट होने के लिए विभिन्न परिस्थितियों में खोले गए विभिन्न द्वार हैं । उनके बदलते रहने पर भी सत्य नहीं बदलता । प्रश्न -- धूम्रपान और मद्यपान को व्यसन क्यों कहा जाता है ? ये तो आजकल की सभ्यता के आवश्यक अंग हैं । उत्तर --- प्रश्न के प्रथमांश एक प्रश्न है और द्वतीयांश एक स्थापना । प्रथमांश का उत्तर है कि ये दोनों ही शरीर धारण के लिए आवश्यक और अनिवार्य तो हैं ही नहीं, परन्तु बहुधा अनेक रोगों के कारण बनने से उसमें बाधक ही होते हैं । एक बार लत पड़ जाने पर मनुष्य को उनका आसेवन दुहराते रहने के लिए विवश हो जाना पड़ता है । यही कारण है कि उन्हें दुर्व्यसन कहा जाता है। पशु अपने खाद्य पेय के विषय में प्रायः आन्तरिक मांग को आधार मानकर चलता है । पर मनुष्य उसका अतिक्रमण भी करता रहता है । यह अतिक्रमण उसे अस्वाभाविकता की ओर ले जाता है । धूम्रपान और मद्यपान सहज नियमों का अतिक्रमण है । प्रश्न के द्वितीयांश में जो यह स्थापना की गई है कि ये सभ्यता के आवश्यक अंग हैं, मैं इससे सहमत नहीं हूं । साधारणतः सभा में बैठने वाले उपयुक्त व्यक्ति को अथवा शिष्ट बर्ताव करने वाले व्यक्ति को सभ्य कहा जाता है । धूम्रपान करने वाला व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण को जहरीले धुओं से भर देता है किन्तु उससे दूसरों को जो असुविधा होती है वह प्रायः उस पर ध्यान नहीं देता । इसी प्रकार मद्यपान करने वाला व्यक्ति उन्मत्त होकर पागल की तरह व्यवहार करने लगता है । सभ्यता के लिए जिस विवेक और बुद्धि की आवश्यकता होती है, मद्यपान के द्वारा उनको आच्छन्न कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में ये दोनों शिष्टता के नहीं, किन्तु अशिष्टता के ही चिह्न हो सकते हैं । इन दोनों को आधुनिक सभ्यता का अंग मानना भ्रम मात्र है । यदि आज तक ऐसा माना गया है या माना जा रहा है, तो इस धारणा को बदल देना चाहिए । प्रश्न -- किसी भी वक्तव्य का स्थायी प्रभाव क्यों नहीं होता ? चरित्र सम्बन्धी उपदेश बार-बार क्यों दुहराए जाते हैं ? उत्तर- साधारणतया किसी भी वक्तव्य का असर न होने में दो ही कारण हो सकते हैं । प्रथम तो यह कि वक्ता अपनी बात को व्यवस्थित और रुचिपूर्ण ढंग से रखने की क्षमता न रखता हो तथा द्वितीय यह कि श्रोता की उपयुक्त पात्रता न हो । परन्तु यहां केवल प्रभाव के लिए नहीं पूछा गया है। उसके पीछे एक विशेषण For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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