Book Title: Chintan ke Kshitij Par
Author(s): Buddhmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 167
________________ अहिंसक क्रान्ति के पुरोधा भगवान् महावीर १५७ साधना पूर्ण नहीं हो सकती । आत्म-विजय पर उन्होंने कितना बल दिया, यह उनके निम्नोक्त उद्गारों से स्पष्ट हो जाता है १. वास्तविक विजेता वह नहीं है, जो भयंकर युद्ध में लाखों मनुष्यों पर विजय पा लेता है, किन्तु वह है जो अपने आप पर विजय पा लेता है । २. यदि तुम्हें युद्ध ही प्रिय है, तो बाहर के इन तुच्छ युद्धों को छोड़कर अपने आप से युद्ध करो । आत्मजयी ही इस लोक तथा परलोक में सुखी होता है । ३. तुम स्वयं ही अपने शत्रु तथा मित्र हो । उन्हें बाहर खोजना व्यर्थ है । ४. स्वयं ही स्वयं को देखो और निर्णय करो कि तुमने क्या किया है तथा क्या करना चाहिए । अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त भगवान् महावीर ने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त पर विशेष बल दिया । अहिंसा से उनका तात्पर्य किसी प्राणी की हत्या से बचने तक ही सीमित नहीं था, किन्तु बुरे चिंतन को भी उन्होंने हिंसा माना और उससे बचना आवश्यक बतलाया । अपरिग्रह से भी उनका तात्पर्य अर्थ-संग्रह न करने मात्र से न होकर यह था कि वस्तु के प्रति ममत्व - व-बुद्धि का विसर्जन ही अपरिग्रह है । ममत्व मिटे बिना संग्रह-बुद्धि मिट नहीं पाती । अनेकान्त से उनका तात्पर्य था — किसी भी तत्त्व या पदार्थ को एकांत दृष्टि से देखने पर उसके साथ न्याय नहीं किया जा सकता । प्रत्येक वस्तु के अनेक पहलू होते हैं, अतः हमारी दृष्टि भी उन सभी पहलुओं को समन्वित रूप से देखकर निर्णय करने वाली होनी चाहिए। अन्यथा हम किसी एक ही पक्ष का आग्रह - पूर्ण पोषण करते हुए असत्य के पोषक बन सकते हैं । अहिंसा का सिद्धांत कलहों और युद्धों में आसक्त मानव जाति को शांति का वरदान दे सकता है । अपरिग्रह का व्यवहार सामाजिक जीवन की विषमताओं और शोषण के विपरीत समता की स्थापना में सहयोगी हो सकता है । उसी प्रकार अनेकान्त का प्रयोग, वस्तु, व्यक्ति और विचारों के प्रति हमें सहनशील तथा गवेषी बनकर न्यायवादी बनने की प्रेरणा देता है । महावीर के उपदेश : वर्तमान युग आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व उन्होंने जो सिद्धांत मानव जाति के सम्मुख रखे थे, उनका उपयोग आज भी उतना ही आवश्यक जान पड़ता है, जितना कि उस युग में था। आज तो कहीं अधिक हिंसा, अर्थ-संग्रह और पक्ष- प्राबल्य चल रहा है । विनाशकारी अस्त्रों के निर्माण ने मानव-सभ्यता को विनाश के कगार पा ला खड़ा किया है । व्यक्ति से व्यक्ति का शोषण आगे बढ़कर राष्ट्र से राष्ट्र का शोषण बन गया है। विश्व अनेक शिविरों में विभक्त हो गया है और प्रत्येक शिविर का नेता For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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