Book Title: Chintan ke Kshitij Par
Author(s): Buddhmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 179
________________ आचार्यश्री तुलसी : कुशल अध्यापक १६६ खपाना पड़ता है । अपने ज्ञान तथा व्याख्या-सामर्थ्य को भी विद्यार्थियों की ग्रहणक्षमता के अनुरूप बनाकर प्रस्तुत करना पड़ता है । उसके लिए उन्हें अपने में रबड़ जैसी संक्षेप-विस्तार की योग्यता विकसित करनी होती है। अन्यथा ज्ञानसागर होकर भी वे विद्यार्थियों के लिए सूखी तलैया बनकर रह जाते हैं। आचार्यश्री में यह कौशल भरपूर है । वे न किसी छात्र को अजीर्ण हो जाने जितनी अधिक मात्रा देते हैं और न भूखों मर जाने जितनी कम । एक कुशल गृहिणी की तरह वे प्रत्येक की भूख और जीर्ण शक्ति को अच्छी तरह से आंकना जानते हैं। अनुशासन क्षमता छात्र-वर्ग को आत्मीयता की डोर में बांधे रखना उनके अध्यापन-कौशल का एक प्रमुख सूत्र रहा है। इसी आत्मीयता के बल पर वे अपने छात्र-वर्ग पर अनुशासन कायम रखा करते हैं । अनुशासन करना एक बात है और उसे करना जानना दूसरी। छात्रों पर अनुशासन करना तो कठिन है ही, पर करना जानना उससे भी कठिन । वह एक कला है, हर कोई उसे नहीं जान सकता। विद्यार्थी अवस्था से बालक होता है स्वभाव से चुलबुला तो प्रकृति से स्वच्छन्द । अन्य-अन्य जीवन-व्यवहारों के समान अनुशासन भी उसे सिखाना ही होता है । जो बात सीखने से आती है, उसमें बहुधा स्खलनाएं भी होती हैं । स्खलनाओं को असह्य बनाने वाले अध्यापक छात्रों में अनुशासन के प्रति श्रद्धा नहीं, अश्रद्धा ही उत्पन्न करते हैं । अनुशासन का भाव छात्र में उत्पन्न न हो जाए तब तक अनुशासन को अधिक उदार, सावधान और सहानुभूतियुक्त रहना आवश्यक होता है । आचार्यश्री की अध्यापन-कुशलता इसीलिए प्रसिद्ध नहीं है कि उनके पास अनेक छात्र पढ़ा करते थे, किन्तु इसलिए है कि वे अनुशासन करना जानते थे। विद्यार्थियों को कब कहना और कब सहना, उसकी सीमा उनको ज्ञात थी। दूसरों को अनुशासन सिखाने वाले को अपने पर कहीं अधिक अनुशासन करना होता है। छात्रों के अनेक कार्यों को बाल-विलसित मानकर सह लेना होता है। अध्यापक का अपने मन पर का अनुशासन भंग होता है तो उसकी प्रतिक्रिया छात्रों पर भी होती है। इसीलिए अध्यापक की अनुशासन-क्षमता छात्रों पर पड़ने वाले रौब से कहीं अधिक, उसके द्वारा अपने आप पर किये जाने वाले संयम और नियंत्रण से मापी जाती है। आचार्यश्री का प्रारम्भ से ही अपने आप पर गजब का नियंत्रण था। वे शैक्ष साधुओं के सम्मुख किसी व्यक्ति से न विशेष बात करते और न कभी हंसते ही । अध्ययन करना और अध्ययन करवाना, मानो ये दो काम ही उनकी पांती में आये हुए थे। आचार्यश्री प्रारम्भ से ही कठोरता और मृदुता के एक अद्भुत मिश्रण रहे हैं। उन्हीं के समान उनका अनुशासन भी इन्हीं दोनों तत्त्वों के समानुपातिक मिश्रण से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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