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अक्षय तृतीया : एक महान् तपःपर्व
आदि स्रोत जैन समाज में वर्षी तप करने का प्रचलन काफी लम्बे समय से रहा है। कहा जा सकता है कि इसका प्रारंभ पुराण-पुरुष भगवान् ऋषभदेव के घोर तप की स्मृति एवं अनुकरण के रूप में हुआ । भगवान् ऋषभ वर्तमान मानव-परम्परा के आदि पुरुष थे, अतः उन्हें आदिनाथ कहा जाता है। वर्तमान जैन धर्म के महत्तम पुरुष चौबीस तीर्थंकरों में वे प्रथम तीर्थंकर थे। सामहिक जीवन-व्यवस्था, राजव्यवस्था और दण्ड-व्यवस्था के आद्य अंकुर उन्हीं के द्वारा उत्पन्न किए गए थे । अध्यात्म के आदि स्रोत भी वे ही थे । वे सप्तम कुलकर नाभि और मरुदेवी के पुत्र थे। चैत्र कृष्णा अष्टमी को उनका जन्म हुआ।
यौगलिक युग जैन काल-गणना के अनुसार एक काल-चक्र पूर्ण होने पर क्रमिक विकास और ह्रास का भी एक चक्र पूरा हो जाता है । फलतः सारी स्थितियां पुनः पूर्व रूप में आ जाती हैं। प्रत्येक काल-चक्र के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी---ये दो विभाग होते हैं। प्रत्येक विभाग के छह 'अर' या विभागांश होते हैं । भगवान् ऋषभ अवसर्पिणी काल में उत्पन्न हुए, उस समय तक उसके प्रथम दो 'अर' पूर्ण हो चुके थे। तीसरे का बहुलांश व्यतीत हो चुका था। अवसर्पिणी काल के उस समय को यौगलिक युग कहा जा सकता है । पुरुष और स्त्री का युगल ही उस समय सब कुछ था। प्रत्येक युगल अपने जीवन काल में स्वभावतः मात्र एक नये युगल को जन्म देता था । न जन-संख्या की वृद्धि थी और न ह्रास । कुल, वर्ग और जाति भी नहीं थी। जन्यजनक एवं पति-पत्नी के अतिरिक्त सम्बन्ध विकसित नहीं हुए थे। सभी व्यक्ति सरल, शान्त और आशुतोष प्रकृति के होते थे। अशन, वसन, निवास आदि की बहुत सीमित आकांक्षाएं थीं । उन सबकी पूर्ति कृल्पवृक्षों द्वारा हो जाती थी। काम करके जीविका प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं थी। संग्रह, चोरी और असत्य के
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