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अक्षय तृतीया : एक महान् तपःपर्व १०५ का भाव जागा, ममत्व बढ़ा, वस्तु और व्यक्ति निज-पर की तुला पर तोले जाने लगे। लोकैषणा और धनैषणा की ओर लोक-मानस-खिचने लगा।
साधना मार्ग पर कर्तव्य बुद्धि से लोक व्यवस्था को गति देते हुए ऋषभ ने लम्बे समय तक राज्य किया। उनके राज्य काल में यौगलिक जीवन का पूर्ण रूप से मानवीकरण हो गया। सामाजिक विकास के साथ-साथ अनेक परम्पराएं उत्पन्न हुई। जन्म, विवाह आदि अवसरों पर उत्सव तथा मृत्यु आदि पर शोक मनाया जाने लगा। ___जीवन के अग्रिम भाग में ऋषभ भोगवाद से विरत होकर त्याग एवं संयम की ओर उन्मुख हुए। वे जन्म से ही अवधिज्ञानी (एक प्रकार के अतीन्द्रिय ज्ञान युक्त) थे। उसी के आधार पर उन्होंने पहले लोक-धर्म का प्रवर्तन किया। उसके सुस्थिर हो जाने के पश्चात् उत्तरकाल में उससे भी आगे लोकोत्तर धर्म या मोक्ष धर्म के प्रवर्तन की तैयारी की। राज्य की सुव्यवस्था चालू रहे इसलिए ज्येष्ठ पुत्र भरत को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। बाहुबलि आदि शेष ६६ पुत्रों को भी अलग-अलग राज्यों का भार सौंपा। उसके पश्चात् चैत्र कृष्णा अष्टमी को उन्होंने आत्म-साधना के मार्ग पर चरण-न्यास कर दिया। ___ ऋषभ ने संयम व्रत के साथ ही मौन ग्रहण कर लिया। उस समय के लोग आहार-दान की विधि से सर्वथा अपरिचित थे । कोई याचक था ही नहीं। भगवान् पैदल विहार करते और आहार-याचना के लिए जाते। उन्हें अपने घर आया देखकर लोग गद्गद हो जाते। अश्व, रथ, आभूषण आदि भेट ग्रहण करने का आग्रह करते, परन्तु भोजन के लिए कोई नहीं पूछता। इतनी छोटी चीज के लिए पूछना किसी को याद ही नहीं आता। अन्तराय कर्म का अनिवार्य उदय समझकर भगवान् निराहार ही विचरण करते रहे । वे अनन्त शक्ति सम्पन्न थे, अतः उस दुस्सह परीषह में भी अडोल रहे ।
उनके साथ चार हजार व्यक्ति दीक्षित हुए थे, परन्तु किसी को साधना-पद्धति का ज्ञान नहीं था। सभी भगवान् का अनुसरण एवं अनुकरण करते रहे । मौनी बन कर बुभुक्षित विचरण करते रहना उनके लिए कुछ ही दिनों में असंभव हो गया। बार-बार पूछने पर भी भगवान् ने अपना मौन नहीं खोला तब वे सब अपनी-अपनी मनः कल्पित साधना करने लगे । घर छोड़ देने के पश्चात् वापस वहां जाना उपयुक्त नहीं लगा अतः वे वनवासी बनकर कंदमूल खाने लगे और बल्कल पहन कर रहने लगे।
वर्षी तप और पारण भगवान् ऋषभ एक वर्ष से भी अधिक समय तक निराहार विचरते रहे । एक बार
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