________________
६४ चिन्तन के क्षितिज पर
से स्वयं से व्यतिरिक्त वस्तुओं को भी जानना चाहते हैं । हम जो हैं, वह है, वस्तु भी जो है, वह है; वहां तक कोई समस्या नहीं, परन्तु जब हम स्वयं अपने आपको या वस्तु-सत्य को अपने ज्ञान का विषय बनाते हैं, उसकी वास्तविकता जानना चाहते हैं और उसके अन्तरंग तक पहुंचने का प्रयास करते हैं, तभी हमारे सम्मुख अनेकानेक समस्याएं आ उपस्थिति होती हैं : आश्चर्य तो यह है कि कोई भी समस्या विषय की ओर से नहीं, अपितु सारी की सारी विषयी की ओर से ही उत्पन्न होती है । हमारी चेतना या ज्ञान की क्षमता ससीम ही होती है। उसकी परिधि में विषयगत किसी भी वस्तु की निःसीम क्षमता समा नहीं पाती। वस्तुतः चेतना या ज्ञान की यह अपूर्णता ही सारी समस्याओं का मूल है; क्योंकि इसी कारण से हमें वस्तुगत अखण्ड सत्य को उन अनेक खण्डों में देखने को विवश होना पड़ता है, जो कि वास्तविक नहीं होते।
आगम-वाणी कहती है कि सत्य ही लोक में सारभूत है। परन्तु हमारी चेतना की अपूर्णता ने उसकी उपलब्धि को एक समस्या बना दिया है पूर्ण चेतना पूर्ण सत्य को पा सकती है, परन्तु अपूर्ण चेतना से उसे कैसे पाया जा सकता है ? हमारे लिए एक ही उपाय शेष है कि पहले अखण्ड को खण्डशः जाना जाए और फिर कल्पना के धागे से जोड़ लिया जाए। अनेक फटे वस्त्र खण्डों को जोड़कर बनाया गया परिधान हमारी चेतना की लज्जा को तो अवश्य बचा लेता है, परन्तु व्यवस्थित परिधान का सौन्दर्य कदापि प्रदान नहीं कर सकता।
हम चेतन हैं, अत: चेतना की भूमि पर खड़े रहकर ही वस्तु-सत्य का अनुभव कर सकते हैं । इस प्रक्रिया में हमारा निर्णय वस्तु पर नहीं, अपितु हमारी चेतना में वह कैसा आभासित होता है, इसी पर एक मात्र आधृत होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी चेतना जितनी पूर्ण और अनावृत होगी, सत्य उसमें उतनी ही पूर्णता से आभासित होगा।
दो साधन हमारे पास चेतना-व्यापार के दो साधन हैं---इन्द्रियां और मन । परन्तु ये बहुत ही अपूर्ण और अपर्याप्त हैं । चेतना की निर्बल आंखें सत्य के सूर्य को प्रत्यक्ष नहीं देख पातीं। इन्द्रिय और मन के विभिन्न रंगीन कांचों को मध्य में लेकर ही उसे देखना पड़ता है। इस विधि से सूर्य के प्रकाश का सहस्रांश भी उसमें आभासित नहीं हो पाता। इस प्रकार सत्य तक पहुंचने में इन्द्रियां और मन जितने साधक बनते हैं, उससे कहीं अधिक बाधक बन जाते हैं । ये हमें वस्तु-सत्य तक न पहुंचाकर अपनी अनुभूतियों को ही वस्तु-सत्य मान लेने के लिए बाध्य करते हैं।
इनके माध्यम से उपलब्ध अनुभव की असन्दिग्ध प्रामाणिकता कभी हो ही नहीं पाती । अनेक बाह्य परिस्थितियां उन्हें इतना प्रभावित कर डालती हैं कि Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org