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७८ चिन्तन के क्षितिज पर
सकते हैं । इसी प्रकार कुछ परिवर्तनशील भी होता है, उसे वस्तु का बहिरंग कह सकते हैं । दार्शनिकों ने इन्हें क्रमशः द्रव्य और पर्याय के नाम से पुकारा है। भाषा की असमर्थता जब हम यह कहते हैं कि वस्तु नित्य होती है, तब हम वस्तुगत अनन्त सत्यों में से केवल एक ही का उद्घाटन करते होते हैं, इसी प्रकार जब हम यह कहते हैं कि वस्तु अनित्य होती है, तब भी उनमें से एक ही सत्य का उद्घाटन करते होते हैं। वस्तुगत सम्पूर्ण सत्यों का उद्घाटन करना भाषा के सामर्थ्य से बाहर है, अतः कथनीय वस्तु-स्वभाव के अतिरिक्त अन्य सब स्वभावों के अस्तित्व की स्वीकृति के लिए जैन दार्शनिकों ने एक सांकेतिक शब्द चुन लिया है.--'स्यात् । यह शब्द कथ्य धर्म के अतिरिक्त शेष सभी धर्मों का प्रतिनिधित्व करता है । इसी शब्द के आधार पर जैन की समग्न व्याख्या-पद्धति को स्याद्वाद के नाम से पुकारा जाता है। स्याद्वाद का अर्थ है, अपेक्षावाद । अर्थात हर वस्तु या धर्म को विभिन्न अपेक्षाओं के प्रकाश में देखना । तात्पर्य यह कि वस्तु में जितने भी विरोधी या अविरोधी धर्म हैं, वे सब विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर ही एकत्र अनुस्यूत् हैं । अपेक्षाओं की उपेक्षा कर किसी भी वस्तु-सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता । इस प्रणाली के आधार पर दार्शनिकों ने परस्पर सर्वथा विरुद्ध दिखाई देने वाले दर्शनों का भी समन्वय करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है । आचार्य सिद्धसेन ने भगवान् की स्तुति करते हुए इसी बात को इन शब्दों में व्यक्त किया है--हे प्रभो ! समुद्र में जिस प्रकार नदियां समन्वित हो जाती हैं, उसी प्रकार आप में सभी दर्शन समन्वित हो गये
आचार्य हरिभद्र ने तो और भी अधिक स्पष्टता और उदारता के साथ अन्य दार्शनिकों के मन्तव्यों का समन्वयन किया है। ईश्वर कर्तृत्ववाद के विषय में वे कहते हैं---"परम ईश्वरत्व युक्त होने से आत्मा को ही ईश्वर कहा जाता है और वह कर्ता है। इस प्रकार कर्तृत्ववाद की व्यवस्था निर्दोष सिद्ध होती है।" उन्होंने अन्य सभी दार्शनिकों के मन्तव्यों को भी इसी प्रकार अपेक्षा-भेद से सत्य स्वीकार करते हुए उनके प्रवर्तकों के प्रति आदर-भाव व्यक्त किया है।
दर्शन : व्यवहार में जैनाचार्यों की समन्वय-भावना केवल दार्शनिक मन्तव्यों तक ही सीमित नहीं रही।
१. "उदधाविव सर्व सिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः ।" २. “परमैश्वर्य युक्तत्वान्, मत आत्मैव चेश्वरः ।
स च कर्तेति निर्दोषः, कर्तृवादो व्यवस्थितः ।"
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