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६८ चिन्तन के क्षितिज पर
क्वचित् शब्द का मूलार्थ अन्य होता है और प्रयुक्त वाक्य के सन्दर्भ में वह कुछ अन्य ही अर्थ प्रकट करने लगता है ।
यह सड़क स्टेशन जाती है ।
यहां गेहूं की बोरियां पड़ी हैं । नाली बह रही है ।
मैं रेडियो सुन रहा हूं ।
उपर्युक्त सभी वाक्यों का अर्थ हम शब्दों से कुछ हटकर ही समझ सकते हैं । हम अच्छी तरह से जानते हैं कि सड़क कभी स्टेशन नहीं जाती, किन्तु सड़क पर चलने वाला व्यक्ति जाता है । बोरियां गेहूं की नहीं, जूट आदि की बनी होती हैं । में पानी बह रहा है, स्वयं नाली नहीं । इसी प्रकार रेडियो नहीं, रेडियो में बोल गयी बातें सुनी जाती हैं ।
अभिव्यक्ति की इस प्रकार की अनेक अपूर्णताओं के कारण ही हमारी एक ATIT विभिन्न व्यक्ति विभिन्न अर्थ लगा लेते हैं और तब हमें 'हमारा तात्पर्य यह नहीं, यह था' के द्वारा अपना स्पष्टीकरण देने को बाध्य होना पड़ता है । सम्भव है, उक्त स्पष्टीकरण के पश्चात् भी उन व्यक्तियों के मन में यह आशंका बनी रह जाए कि पहले तो बात इसी अर्थ में कही गयी थी, परन्तु अब पलटकर उसका दूसरा अर्थ किया जा रहा है ।
प्रतिनिधि शब्द
उपर्युक्त सभी प्रकार की कमियों के रहते हुए भी हमारे पास अभिव्यक्ति के लिए भाषा ही अन्य साधन है । इसके बिना हम अपने विचार एक-दूसरे तक समीचीन रूप से पहुंचा नहीं सकते । हमारे लिए इसका प्रयोग अनिवार्य है । चिन्त्य इतना ही रह जाता है कि किस प्रकार से इसका प्रयोग किया जाना चाहिए, जिससे कि भाषा हमारी अनुभूति को अधिक से अधिक पूर्णता के साथ अभिव्यक्त कर सके । भगवान् महावीर ने मार्ग बतलाते हुए कहा है- “ विभज्जवायं च वियागरेज्जा"" अर्थात् बोलते समय 'विभज्यवाद' का प्रयोग करो ।
विभज्यवादः स्याद्वाद
विभज्यवाद का अर्थ है - अपेक्षावाद । जिस किसी भी वस्तु के विषय में हम कुछ कहना चाहते हैं, वह अनन्त धर्मात्मक होती है । उनमें से कुछ धर्म ही हमारे इन्द्रिय-सापेक्ष ज्ञान द्वारा ज्ञात हो पाते हैं । उन सब ज्ञात धर्मों का कथन भी एक
१. सूत्रकृतांग, १-१४-२२
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