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अनुशासन : एक समस्या
मानव जाति के विकास-क्रम में एक युग ऐसा भी था, जिसमें मनुष्य एकाकी रहता था और शिकार के आधार पर जीवन-यापन करता था। वह युग संख्यातीत वर्ष पूर्व का था। उस समय तक मानव-सभ्यता का विकास अंकुरित नहीं हुआ था कालान्तर में प्राकृतिक प्रेरणा ने उसे सामूहिक जीवन की ओर अग्रसर किया। सुरक्षा की भावना भी ऐसा करने में उसके लिए सहायक थी। ‘एकोऽहं बहु स्याम्' का ईश्वरीय संकल्प मानवीय संकल्प का ही प्रतिबिम्ब प्रतीत होता है। अकेला रहने वाला मनुष्य धीरे-धीरे समाज बनाकर रहने का अभ्यस्त हो गया।
एकाकी जीवन पद्धति एकाकी जीवन-पद्धति से सामष्टिक जीवन-पद्धति में आने पर मानव-जाति को जहां अनेक सुविधाएं प्राप्त हुई, वहां उसे अनेक दुविधाओं का भी उपहार मिला। उसकी क्षमताएं तो बढ़ीं, पर साथ ही विवशताएं भी बढ़ गईं। एकाकी के लिए मन ही सर्वोपरि संविधान होता है । करणीय और अकरणीय का निर्णय वही करता है। प्रत्येक विधि और निषेध उसी की आकांक्षाओं के इंगित बनकर चलते हैं । उस स्थिति में न किसी स्थिर सिद्धान्त की अपेक्षा होती है और न किसी प्रदत्त आदर्श के प्रकाश की। जो चाहा, वह किया और जो नहीं चाहा, वह नहीं किया। यही उस समय का सर्वोत्कृष्ट सिद्धान्त या आदर्श कहा जा सकता है। परन्तु सामष्टिक जीवन में किसी भी एक व्यक्ति की मनमानी नहीं चल सकती। वहां दूसरों की भावनाओं, इच्छाओं तथा सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो जाता है। उस स्थिति में दूसरों के लिए अपनी सुविधाओं का आंशिक परित्याग भी करना पड़ता है।
सामाजिक जीवन : स्वार्थ की सीमा सामजिक जीवन के उस उषःकाल में प्रथम बार जब किसी मनुष्य ने किसी दूसरे के लिए अपनी सुखोपलब्धि में उत्पन्न बाधा को सहा, तभी से अनुशासन का जन्म
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