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मानसिक शान्ति और धारणाओं का रंग ४६
बीच वाले व्यक्ति ने उसे रोकते हुए कहा - 'क्या कर रहे हो ? हवा के ठंढे झोंके मुझे परेशान कर रहे हैं । खिड़की को बन्द कर दो ।'
किनारे वाला युवक तुनककर बोला-' खिड़की को खुला रखना होगा, बन्द होने पर मेरा दम घुटता है ।'
उस व्यक्ति ने उसके कथन पर कोई ध्यान नहीं दिया और उठकर पुनः खिड़की को बन्द कर दिया । वह बैठ भी नहीं पाया था कि किनारे वाले ने उसे पुनः खोल दिया । यो एक व्यक्ति खिड़की को बन्द करता रहा और दूसरा उसे पुनः खोलता रहा। झगड़ा चलता रहा। कई स्टेशन पार हो चुकने पर जब उस डिब्बे में टी० टी० आया, तब दोनों ने ही शिकायत की। टी० टी० खिड़की की वास्तविकता को जानता था । वह मुस्कराया और बोला- 'आप व्यर्थ में झगड़ रहे हैं । पहले खिड़की को तो अच्छी तरह से देख लीजिए।' खिड़की को देखा तो पता चला कि उसमें कांच है ही नहीं। दोनों को अपनी धारणा की ही ठंड या गरमी लग रही थी । पूर्व धारणा का रंग उड़ते ही वास्तविकता का भान हुआ और वे अपने स्थान पर शान्ति से बैठ गये । वे पहले भी शान्ति से बैठ सकते थे, परन्तु दोनों की एक-एक धारणा थी और तज्जन्य उद्वेग था, जो कि मन के सरोवर में अशान्ति का विष घोले जा रहा था । लड़ाई उसी विष का परिणाम थी ।
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उत्तम रंग
हमने अपनी अनुभूतियों के लिए एक प्रकार से सीमाएं निर्धारित कर दी हैं, अतः उनसे बाहर जाकर सोचने एवं समझने की बात बड़ी अटपटी लगने लगी है । धारणाओं के रंग में रंगे बिना घटनाएं या स्थितियां रंगहीन, दूसरे शब्दों में कहें तो आनन्द-हीन अनुभव होने लगती हैं । परन्तु यह भी तो एक धारणा ही है । यदि हम हर अनुभूति को अपनी धारणा के रंग में ही देखना चाहते हैं तो उसे काले या कुत्सित रंग में ही क्यों रंगे, दूसरे रंग भी तो बहुत हैं, जो उत्तम और सुन्दर होते हैं । यदि हम अपनी धारणा की दिशा को बदल दें तो हमें दूसरे ही प्रकार की अनुभूतियां होने लगेंगी। वे हमें गिरने से तो बचायेंगी ही, ऊपर भी उठायेंगी ।
ठोकर लगने पर हमें प्रायः दुःखानुभूति होती है, गाली सुनकर क्रोध आता है, मन के विपरीत कार्य होने पर क्षोम होता है । कारण स्पष्ट है । यह सब मन की पूर्व निर्धारित धारणाओं के आधार पर ही होता है। यदि हम चाहें तो ऐसी अनुभूतियों को दूसरा रंग भी दे सकते हैं । हम सोच सकते हैं कि अच्छा हुआ,
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