Book Title: Chhandonushasan
Author(s): Hemchandracharya, H C Bhayani
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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मलयगिरिने चंदन वगरनो करी दीधो, हिमालयने हिम वगरनो करी दीधो, सेंकडो अशोकवृक्षोने प्रयत्न पूर्वक पल्लव वगरनां करी दीधा, कोमळ केळोनां बधां पत्र तोडी लीधां, तरुलताओने पुष्प विनानी बनावी दीधी, अने जगतने मोती वगरनुं करी मूक्यु,
तो पण हे निर्गुण, असह्य विरहना दाहथी थयेली ए तरुणीनी दारुण वेदना फीटती नथी ।'
वस्तुवदनक+कुंकुमनी द्विभंगी, उदाहरण :
गयणुप्परि कि न चडहि कि न रि विक्खरहि दिसिहि वसु, भुवण-त्तय-संतावु हरहि कि न किरवि सुहा-रसु । अंधयारु कि न दलहि पयडि उज्जोउ गहिल्लउ, कि न धरिज्जहि देवि सिरहं सई हरि सोहिल्लउ । कि न तणउ होहि रयणायरह, होहि कि न सिरि-भायर । तु वि चंद निअवि मुह गोरिअहि, कु-वि न करइ तुह आयरु॥ १२८
___ 'तुं ऊंचे आकाशमां केम न चडे ? चारे दिशाओमां तारी संपत्तिनो झळहळतो प्रकाश प्रकटावीने अंधकारनो नाश केम न करे ? स्वयं महादेव शोभा माटे तने शिर पर केम धारण न करे ? रत्नाकरनो पुत्र तुं केम न हो? लक्ष्मीनो तुं भाई केम न हो? आ बधुं होय तो पण हे चंद्र ! ए गोरी- मुख जोया पछी कोई पण तारो आदर न करे ।' रासावलय+कर्पूरनी द्विभंगी, उदाहरण :
परहुअ-पंचम-सवण-सभय मन्नउं स किर, तिंभणि भणइ न किं पि मुद्ध कलहंस-गिर ।
(पाठांतर : कलकंठि-गिर) । चंदु न दिक्खण सक्कइ जं सा ससि-वयणि, दप्पणि मुहु न पलोअइ तिंभणि मय-नयणि ॥ वइरिउ मणि मन्नवि कुसुमसरु खणि खणि सा बहु उत्तसइ । अच्छरिउ रूव-निहि कुसमसर तुह दंसणु जं अहिलसइ ॥ १२९ 'मने लागे छे के कोकिलाना जेवा स्वरवाळी ए मुग्धा कोयलनो पंचम सूर
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