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इसग्रन्थके उत्तरार्द्धके तीसरे खंडकी-जाहिर खबर.
१.इसग्रंथके उत्तरार्द्धके तीसरेखंडमें आगमादि अनेकप्राचीन शास्त्रानुसार,व चंद्रगच्छ,वडगच्छ, स्वरतरगच्छ,तपगच्छ,अंचलगच्छ, पायचंद्गच्छादि सर्वगच्छोंके पूर्वाचार्योंके बनाये ग्रंथानुसार श्रीवीर प्रभुके छ कल्याणक मान्यकरनेका अच्छी तरहसे सिद्ध करके बतलाया है. और शांतिविजयजीने जैनपत्र में, विनयविजयजीने 'सुबोधिका में, कांतिविजयजी-अमरविजयजीने 'जैनसिद्धांत सामाचारी' में, श्रीआत्मारामजीने 'जैन तत्त्वादर्श में, धर्मसागरजीने 'कल्पकिरणावली' 'प्रवचन परीक्षा' वगैरहमें जो जो छ कल्याणक नि. षेध संबंधी शंकायें की हैं. और शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्रायको समझे बिनाही अधूरे२ पाठ लिखकर उनके खोटे २ अर्थ करके भोले जीवोंको उलटा मार्ग बतलानेकी कोशिश की है, उन सर्वबातोंका समाधान सहित निर्णय इसमें लिखने में आया है।
२-और श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजसे वस्तिवासी-सुविहितखरतर विरुदकी शुरूयात हुयीहै,इसलिये श्रीनवांगीवृत्तिकारक श्री. अभयदेवसूरिजी महाराज खरतर गच्छमें हुए हैं, यह बात प्राचीन शास्त्रानुसार तथा तपगच्छके पूर्वीचार्योंके बनाये ग्रंथानुसार सिद्धकरके बतलायाहै । और कोई महाशय श्रीजिनदत्त सूरिजी महाराजसे संवत् १२०४में खरतरगच्छकी शुरूयातहोनेका कहते हैं, सोभी सर्वथा असत्य है. क्योंकि-इन महाराजसे सं.१२०४ में खरतरगच्छकी शुरूयात होनेका कोईभी कारण नहीं हुआ है. व्यर्थ झूठे आक्षेप करने बडी भूल है, देखो-१२०४में तो खरतर गच्छकी तीसरी शाखा हुईहै. इस बातका अच्छीतरहसे खुलासा इसग्रंथमें करने में आयाहै.
३-और जैनशास्त्रोंकी यह आज्ञा है, कि-यदि अपनी गच्छ परंपरामें ३-४ पेढीके आगेसेही शिथिलाचार चला आता होवे, तो क्रिया उद्धार करनेवाले दूसरेगच्छके अन्यशुद्ध संयमीके पासमें क्रिया उद्धार करें. अर्थात्- उनके शिष्य होकरके शुद्ध संयम पालें, उससे पहिलेकी शिथिलाचारकी अशुद्ध परंपरा छुटकर, क्रिया उद्धार करवानेवाले गुरुकीशुद्धपरंपरा मानीजावे. देखो जैसे-श्रीआत्माराम जीने ढूंढियोंके झूठेमतको छोडकर तपगच्छमें दीक्षाली है. इसलिये यद्यपि पहिलेढूंढियेथे तोभी उनकीपरंपरा ढूंढियों मेंनहींलिखी जावे; किंतु तपगच्छमेंही लिखीजावे. तथा कोई शिथिलाचारी यति अपने गुरु व गच्छको छोडकर अन्यगच्छवाले शुद्धसंयमाके पासमे क्रिया
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