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[ ११ ] मर्यादाका भंगहोनेरूप यह तीसरा दोषआताहै. और सर्व गीतार्थपू.
चार्योने महानिशीथादि देखेथे, उन्होके अर्थकोभी अच्छी तरहसे जानतेथे, तोभी सामायिकमें प्रथम इरियावही नहीं लिखी, जिसपरभी अभी महानिशीथसे सामायिकमें प्रथम इरियावही ठहरानेसे उन सर्वे गीतार्थ पूर्वाचार्योको महानिशीथके अर्थको नहीं जाननेवाले अशानी ठहरानेका यहचौथादोषआताहै. और सर्वपूर्वाचार्योंने सामायिक प्रथमकरेमिभंते पीछेइरियावही लिखीहै,उसको उत्थापनकरनेसे सर्व पूर्वाचार्योंकी आज्ञा लोपनेका यह पांचवा दोषभी आताहै. और आवश्यकचूर्णि आदिक सर्व शास्त्रोंके विरुद्ध होकर सामायिक में प्रथम इरियावही स्थापन करनेसे आगम पंचांगीके उत्थापनरूप यह छठा दोषआताहै. और खास तपगच्छके श्रीदेवेंद्रसूरिजी,कुलमंडनसूरिजी वगैरहोंनेभी सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरिया. वही खुलासा लिखी है, उसकेभी विरुद्ध होकर सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरानेसे अपने पूर्वज बडील आचार्योकीभी अवज्ञा करनेरूप यह सातवा दोषभी आताहै. इसप्रकार सामायिकमें प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही कहनेका निषेध करके प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरानेसे अनेक दोष आते हैं, इ. सका विशेष खुलासा पूर्वक निर्णय शास्त्रोके संपूर्ण संबंधवाले पा. ठोकेसहित इसीग्रंथके दूसरेभागकी पीठिकाके पृष्ठ८७से११२ पृष्ठतक और इस ग्रंथमभी पृष्ठ ३१० से ३२९ पृष्ठ तक छपगयाहै. वहां सर्व शंकाओंका खुलासा समाधान करनेमें आया है, इसलिये आत्मार्थी भव्य जीवोंको जिनाशानुसार, सर्व गच्छेोके पूर्वाचार्योंके वचनानुसार, प्राचीन अनेक शास्त्रानुसार, तीर्थकर गणधर पूर्वधरादि महाराजोकी भाव परंपरानुसार सामायिक प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावही करनाहीयोग्यहै, और प्रथमहरियावही करनेकी अभी थोडेकालकी गच्छकीरूढीके आग्रहको छोडनाही श्रेयरूप है । इस बातको विशेष तत्त्वज्ञ जन आपही विचार लेंगे.
जिन २ महाशयोंको इतना बडा संपूर्णग्रंथ वांचनेका अवकाश न होवे; उनमहाशयोको इसग्रंथके प्रथमभागकी भूमिका और दूसरे भागकी पीठिकाको अवश्यही वाचनाचाहिये. मैने भूमिका-पीठिकामें अन्य २बाते नहींलिखी,किंतु इसग्रंथकासार और सर्वशंकाओंका थोडेसे में समाधानमात्रही लिखाहै इसलिये भूमिका-पीठिका वांच. नेवालोंको ग्रंथकासार अच्छीतरहसे मालूम होसकेगा. इतिशुभम् .
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