Book Title: Bhram Vidhvansanam Author(s): Jayacharya Publisher: Isarchand Bikaner View full book textPage 7
________________ 1 ) है। टब्बा अथ में पाठके शब्द के प्रथम • ऐसा चिन्ह लगाया गया है जो कि समस्त शब्द का बोधक है। संस्कृत टीका इटालियन (टेढ़े ) अक्षरों में छापी गई है । जैसा क्रम छापने का है उसीके अनुसार इस ग्रन्थ के छपाने में पूरा ध्यान दिया गया है। तथापि कोई महोदय यदि दोष देंगे तो पारितोषिक समझ कर सहर्ष स्वीकार किया जायगा । प्रथम वार इस ग्रन्थ की २००० प्रतियां छपाई गई हैं । लागत से भी मूल्य कम रक्खा गया है। इस ग्रन्थ के छपाने का केवल उद्देश्य भगवान् के सत्य सिद्धान्त का घर २ प्रचार होना है । समस्त जैन समाजों का कर्त्तव्य है कि पक्षपात रहित होकर इस ग्रन्थ का अवश्य मनन करें। यह ग्रन्थ जैसा निष्पक्ष और स्पष्ट वक्ता है दूसरा नहीं । तेरापन्थ समाज का तो ऐसा एक भी घर नहीं होना चाहिये जिसमें कि यह जयाचार्य का ग्रन्थ भ्रमविध्वंसन न विराजता हो । यह ग्रन्थ तेरापन्थ समाज का प्राण है बिना इस ग्रन्थ के देखे कभी सूक्ष्म बातों का पता नहीं लग सक्ता । इस ग्रन्थ के संशोधन कार्य में जो आयुर्वेदाचार्य पं० रघुनन्दनजी ने सहायता दी है उसके लिये हम पूर्ण कृतज्ञ हैं । समस्त परिश्रम तभी सफल होगा जब कि आप ग्रन्थ के लेने में विलम्ब न लगायेंगे और अपने इष्ट मित्रों को लेने के लिये प्रेरित करेंगे । इसकी अनुक्रमणिका भी अधिकार. बोल. और पृष्ठ की सङ्ख्या देकर के भूमिका के ही आगे लगाई गई है जो कि पाठकों को पाठ खोजने में अतीव सहायिका होगी । प्रथम छपे हुए भ्रम विध्वंसन में सूत्रों की साख देने में अतीव भूलें हुईं २ थी अबके वार यथाशक्ति सूत्र की ठीक २ साख देने में ध्यान दिया गया है तथापि यदि किसी२ पुस्तक में इस साख के अनुसार पाठ न मिले तो उसीके आसपास में पाठक खोज लेवें। क्योंकि कई पुस्तकों में साखों में तो भेद देखा ही जाता है । विशेष करके निशीथ के बोलों की संख्या में तो अवश्य ही भेद पाया जावेगा क्योंकि उसकी संख्या हस्तलिखित प्रतियों में तो कुछ और और छपी हुई पुस्तकोंमें कुछ और ही मिली है । पहिले छपे हुए " भ्रम विध्वंसन" में और इस में कुछ भी परिवर्त्तन नहीं है किन्तु २-४ स्थलों में नोट देकर संशोधक की ओर से जो खड़ी वोलीमें लिखा गया है वह पहले भ्रम विध्वंसन से अधिक है। आज का हम सौभाग्य दिवस समझते हैं जब कि इस अमूल्य ग्रन्थ की पूर्ति हमारे दृष्टि गोचर होती है । कई भ्रातृवर इस ग्रन्थकी, "चातक मेघ प्रतीक्षा घत् " प्रतीक्षा कर रहे थे अत्र उनके करः कमलों में इसप्रन्य को समर्पित कर हम भी कृत कृत्य होंगे ।Page Navigation
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