Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ भक्तामर प्रवचन भट्टारकीय युग में मंत्र-तंत्र विधि-विधानादि तथा कल्पित कथायें आदि भी खूब लिखी गईं। इस सब में सत्यासत्य का निर्णय तो सम्भव नहीं है, पर इतना तो सिद्ध है कि इसके प्रभाव से कोई अछूता नहीं रहा। इनके अतिरिक्त भक्तामर की पादपूर्ति या समस्यापूर्ति के रूप में लगभग २५ संस्कृत काव्य रचे गये। “पाण्डे हेमराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद तो सर्वाधिक प्राचीन, सर्वश्रेष्ठ व सरस रचना है ही, उन्होंने भक्तामर पर हिन्दी गद्य वचनिका (१६५२ ई.) भी लिखी थी तथा प्रसिद्ध आध्यात्मिक विद्वान पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा (१८१३ ई.) ने भी भक्तामर चरित' लिखा है। और भी पण्डित धनराज आदि के प्राचीन पद्यानुवाद मिलते हैं।' वर्तमान काल में प्राय: सभी सहृदय भक्त कवियों ने भक्तामर काव्य के आधार पर जिनेन्द्र भगवान के चरणों में अपनी-अपनी लेखनी से प्रसूत काव्य-प्रसून अर्पित किए हैं। अन्तिम कड़ी के रूप में पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की यह भक्तामर प्रवचन माला उनकी परोक्ष उपस्थिति में जिनेन्द्र चरणों में समर्पित करके अपने कण्ठ में धारण करते हुए और हृदय का हार बनाते हुए हम अति हर्षित हैं। प्रस्तुत प्रस्तावना के माध्यम से हमने संक्षेप में भक्तामर का माहात्म्य, जनसामान्य में इसकी लोकप्रियता के कारण, इसकी विषय-वस्तु, आगम के आलोक में भक्तिस्तुति का स्वरूप, व्यवहार भक्ति में परमात्मा में कर्त्तापन का आरोप का औचित्य, भक्तामर स्तोत्र पर विविध प्रकार के साहित्य का सृजन, भक्तामर के रचयिता मानतुङ्ग, उनका समय, काव्यों की संख्या, स्तोत्र का नाम, भक्तामर पर भट्टारकीय युग का प्रभाव आदि विविध विषयों का सामान्य परिचय कराने का प्रयास किया है। विशेष जानकारी के लिए यथास्थान संदर्भित टिप्पणियाँ भी दी गई हैं। विस्तार के भय से यद्यपि टिप्पणियों के अनुसार यहाँ पूरे अंश नहीं दे सके हैं, तथापि प्रयोजन पूरा हो जाता है। आशा है, पाठक इससे लाभ लेकर हमारे श्रम को सार्थक करेंगे। सभी लोग इस ग्रन्थ के द्वारा भक्ति का यथार्थ स्वरूप समझकर भक्त, भक्ति और भगवान की त्रिमुखी प्रक्रिया को अपने जीवन में साकार करके सच्चा सुख प्राप्त करें - इस पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ। १. अगरचन्द नाहटा (श्रमण, सितम्बर १९७०) भक्तामर प्रवचन (परम पूज्य श्री मानतुङ्गाचार्यदेव विरचित आदिनाथ स्तोत्र पर हुए आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के प्रवचन) श्री मानतुझाचार्यदेव द्वारा रचित यह आदिनाथ स्तोत्र एक भक्तिपरक काव्य है, जिसका नाम ऋषभजिनस्तुति अथवा भक्तामर स्तोत्र भी है, इसमें ४८ काव्य हैं। श्री आदिनाथ भगवान अर्थात् ऋषभदेव प्रभु इस चौबीसी के तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर हो गये हैं। आत्मस्वरूप का बोध करके पिछले तीसरे भव में जिसने तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया हो, वही बाद में दीक्षा लेकर तीर्थंकर होता है - ऐसे अनन्त तीर्थकर हुए हैं। श्री मानतुङ्गाचार्य देव ने यह दिव्य स्तुति रची है, जिसमें व्यवहारभक्ति के साथ निश्चय-अध्यात्मशैली भी समाविष्ट है। अधिकांश जीव इस स्तुति के द्वारा सांसारिक फल की वांछा करते हैं, यह अनुचित है। आचार्य श्री समन्तभद्र तथा श्री वादिराजसूरि आदि अनेक आचार्यों ने इसप्रकार की स्तुतियों की रचनायें की हैं। उन सभी ने वीतराग भावना के लिए ही वीतराग की स्तुति की है। निश्चय से साधक और साध्य तथा भक्त और भगवानपना अपने में ही है। निश्चयसे हमस्वयंहीभगवान हैं और साधकभावकी अपेक्षासे भक्तभीस्वयंही हैं। मानतुङ्ग नाम में दो शब्द हैं - मान + तुङ्ग । मान अर्थात् जिसे ऊँचा सम्मान प्राप्त है और जिसमें स्वतन्त्र शक्ति का उछाला आया है तथा तुङ्ग अर्थात उत्कृष्ट । जिसने उत्कृष्ट भाव से भान (विवेक) सहित भगवान की भक्ति की है, वह जीव स्वयं त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर होता है और इन्द्रों का मुकुट उसके चरणों में नमता है। ऐसे श्री मानतुझाचार्यदेव ने यह आदिनाथ स्तोत्र बनाया है। सर्वप्रथम कविवर पण्डित हेमराजजी पाण्डे हिन्दी मंगलाचरण में भगवान आदिनाथ प्रभु को स्मरण और नमन करते हैं - आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार। धरम धुरंधर परमगुरु, नमों आदि अवतार ।। इस मंगलाचरण में आदिनाथ भगवान को आदि-पुरुष, आदीश-जिन, धरम-धुरंधर, परमगुरु आदि विशेषताओं सहित स्मरण किया गया है।

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