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भक्तामर प्रवचन भगवान की स्तुति करनेवाले मतिमान जो सुबुद्धि हैं, वे सम्यग्दृष्टि पात्र हैं। जो पुण्य-पाप व संयोग का आदर छोड़कर असंग व अविकार स्वभावी आत्मा का आदर करते हैं, वे ही मतिमान हैं, सुबुद्धि हैं: जो संयोग व विकार का आदर करते हैं, वे मतिमान नहीं हैं, सुबुद्धि नहीं हैं।
जो श्रद्धावान होकर निर्भयस्वभाव की दृष्टिपूर्वक इस स्तोत्र को पढ़ते हैं, उनको मदोन्मत्त हाथी, सिंह, बड़वाग्नि, सूर्य, युद्ध, समुद्र, जलंधर, वनाग्नि तथा बन्धन आदि से होनेवाले भय नहीं होते। उन्हें नि:शंकता, निर्भयता और स्वभाव से ही प्रसन्नता होती है; सम्यग्दृष्टि इहलोकभय, परलोकभय, मरणभय, वेदनाभय, अकस्मातभय, अनरक्षाभय और अगुप्तिभय - इन सात भयों से रहित होते हैं। सम्यग्दृष्टि को अभेद स्वभाव का आश्रय है, इसकारण वह
आत्मोन्नति करता हआ आठकर्मों का नाश करता है। सम्यग्ज्ञानी धर्मात्मा निःशंक होने से निर्भय है। कोई ऐसा समझता हो कि कर्म डर से भाग जाते होंगे - सो ऐसी बात नहीं है; कर्म तो जड़ हैं, उन्हें डर होने का प्रश्न ही कहाँ है ? धर्मात्मा अलंकार की भाषा में कहते हैं कि आठ कर्मों को डर लगता है, इसकारण वे हमारे पास से चले जाते हैं।
काव्य ४८ स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धां
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र पुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजस्रं
तं 'मानतुंग'-मवशा समुपैति लक्ष्मीः ।।४८ ।।
हिन्दी काव्य यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी । विविध-वर्णमय-पुहुप गूंथ मैं भक्ति विथारी ।। जे नर पहिरे कंठ भावना मन में भावें । 'मानतुंग' ते निजाधीन-शिव-लछमी पावै।। भाषा भक्तामर कियो, 'हेमराज' हित हेत।
जे नर पढ़ें सुभावसों, ते पावैं शिव-खेत ॥४८ ।। अन्वयार्थ - (जिनेन्द्र) हे जिनेन्द्र भगवन ! (इह) इस लोक में (यः जन:) जो पुरुष (भक्त्या ) भक्तिपूर्वक (मया) मेरे द्वारा (तव गुणैः निबद्धाम्) आपके गुणों से गूंथी गई, बनाई गई (रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्) मनोहर स्वर-व्यंजन वर्णों के यमक-श्लेष-अनुप्रासादि अलंकाररूप विविध सुमनों की (स्तोत्रम्रज) आदिनाथ स्तोत्ररूपी माला को (अजस्रम्) सदैव (कण्ठ-गतां धत्ते) कण्ठस्थ करता है, गले में धारण करता है (तं मानतुङ्गं) उस प्रतिष्ठा प्राप्त महापुरुष को, स्वाभिमानी समुन्नत पुरुष को भक्तामर के द्वारा आदिनाथ के श्रोता श्री मानतुङ्गाचार्य को (लक्ष्मी) मोक्षलक्ष्मी (अवशा समुपैति) विवश होकर वरण करती है अर्थात् स्वयमेव प्राप्त होती है।
तत्त्वज्ञ को ज्ञानी गुरु ही प्रिय है दिठ्ठावि केवि गुरुणो, हियए ण रमंति मुणिय तत्ताणं ।
केवि पुण अदिठ्ठा, चिय रमंति जिण वल्लहो जेम ।।१२९।। अर्थ - कितने ही गुरु तो ऐसे हैं कि जिन्हें देखे लेने पर भी तत्त्वज्ञानियों का हृदय उनमें रमता नहीं है अर्थात् वे लोक में तो गुरु कहलाते हैं, परन्तु उनमें गुरुपने का गुण नहीं होता। ऐसे गुरु ज्ञानी पुरुषों को रुचते नहीं हैं। और कोई गुरु ऐसे हैं, जो अदृष्ट हैं - देखने में नहीं आते हैं - तो भी तत्त्वज्ञानी पुरुषों के हृदय में जिन-वल्लभ के समान रमते हैं। उन्हें जैसे जिनेन्द्र भगवान प्रिय हैं, उसीप्रकार सुगुरु भी प्रिय हैं। ज्ञानीजन उनका परोक्ष स्मरण करते हैं। जिसप्रकार गणधर आदि आज प्रत्यक्ष नहीं हैं तो भी ज्ञानीजनों के हृदय में वे रमते हैं।
- उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला, श्लोक : १२९
काव्य ४८ पर प्रवचन दिगम्बर सन्त श्री मानतुङ्गाचार्य देव सदैव आत्मा के ज्ञान व आनन्दरस में