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भक्तामर प्रवचन
१५६ मग्न रहते थे। उन्हें भक्ति का उत्साह आया और यह महाकाव्य रूप स्तुति बन गई। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि आचार्यदेव ने यह काव्य बनाया।
किंवदन्ति है कि प्रसंगवश राजा ने श्री मानतुङ्गाचार्य को जेल (बंदीगृह) के अन्दर बन्द करा दिया था। उससमय आचार्यदेव द्वारा अन्य विकल्पों से बचने के लिए आदिनाथ भगवान का भक्ति-भाव सहित स्मरण करते हुए यह स्तोत्र बनाया गया । यदि उसी समय बाह्य पुण्योदय के निमित्त से बंदीगृह के ताले टूट गये हों तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है; क्योंकि जिनेश्वरदेव की निश्चय स्तुति करने से तो कर्मप्रकृतियों के १४८ ताले तक टूट जाते हैं।
यहाँ इस काव्य में तो यह कह रहे हैं कि ज्ञानी को संग्राम में लड़ाई के मध्य भी भय नहीं होता। वह ध्रव ज्ञानस्वभावी आत्मा के आश्रय से अन्तर के रागादि शत्रुओं को जीत लेता है तथा बाहर में पूर्व पुण्य के योग से लड़ाई जीत लेता है। यह सब आपकी भक्ति का प्रभाव है।
आप ही वीतरागी देव हो, मैं आप जैसे वीतरागी देव के सिवाय अन्य की स्तुति नहीं करता। तीर्थंकर, वासुदेव, बलदेव शलाका पुरुष हैं। मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ - ऐसा ज्ञान होते हुए भी वर्तमान कमजोरी से लड़ाई का भाव आता है, लड़ाई में जाता है और वहाँ जीत जाता है।
यह आदिनाथ स्तोत्र का अन्तिम काव्य है। इसमें महान मांगलिक बात कही है। आचार्य कहते हैं कि जो इस स्तोत्र का भाव समझ लेता है, उसको आत्मा की अंतरंग पवित्रता की महिमा बढ़ जाती है। उसमें उसे आत्म-वैभवरूप लक्ष्मी की प्राप्ति तो होती ही है तथा कुछ काल तक रागांश रहने से उसके फल से स्वर्ग की लक्ष्मी भी मिले तो इसमें क्या आश्चर्य ? मनुष्यभव में राज्य की लक्ष्मी भी मिलती है और अन्त में केवलज्ञान लक्ष्मी तो मिलती ही है।
हे नाथ! आपकी भक्ति करनेवाला आप जैसा ही हो जाता है। हे जिनेन्द्रदेव ! आपके गुणरूपी वन में से मैंने ऐसे गुणों की माला गूंथी है, ऐसा अमृत का हार बनाया है कि जिसमें आत्मा के अनुभव रूपी मधुर-मधुर गुच्छे लगे हैं।
काव्य-४८
१५७ हे देव ! ४८ काव्यरूप भक्ति-पुष्पों द्वारा गूंथी गई यह भक्तिमाला है, जो भक्तों को सदैव आनन्द देनेवाली होगी। जो भव्यजीव इन ४८ काव्यपुष्पों की माला को अर्थसहित याद करके कंठ में धारण करेंगे - पहनेंगे अर्थात् आत्मस्वभाव में जमेंगे, उन्हें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के द्वारा तीर्थंकर जैसा उच्च पद का सम्मान मिलेगा अर्थात् वे तीर्थंकर होंगे। मानतुङ्ग का अन्तरंग अर्थ उच्चमान मिलना है। जहाँ पवित्रता के साथ पुण्य का भी पूरा वैभव प्राप्त होगा, पुण्य की भी कमी नहीं रहेगी।
आचार्य कहते हैं - मुझे भी संयोगी के काल में स्वर्ग का राज्य तथा पश्चात् पूर्णता के काल में शिवलक्ष्मी-मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति होगी।
१०वें काव्य में भी कहा है कि - 'तुल्या भवति भवतो ननु तेन किं वा' अर्थात् मैं भी आप जैसी ही पवित्रता व पुण्य से भरा-पूरा तीर्थंकर पद प्राप्त करूँगा।
अहो ! ऐसे भगवान !! भगवान की प्रतिमा देखते ही 'अहो ! ऐसे भगवान !!' इसप्रकार एकबार जो सर्वज्ञदेव के यथार्थ स्वरूप को लक्ष्यगत कर ले उसका भव से बेड़ा पार है। श्रावक प्रात:काल भगवान के दर्शन द्वारा अपने इष्टध्येय को स्मरण करके बाद में ही दूसरी प्रवृत्ति करे। इसीप्रकार स्वयं भोजन करने के पूर्व मुनिवरों को याद करे कि अहा ! कोई सन्त-मुनिराज अथवा धर्मात्मा मेरे आँगन में पधारें और भक्तिपूर्वक उन्हें भोजन कराके पीछे मैं भोजन करूं। देव-गुरु की भक्ति का ऐसा प्रवाह श्रावक के हृदय में बहना चाहिए। भाई ! प्रात:काल उठते ही तुझे वीतराग भगवान की याद नहीं आती, धर्मात्मा सन्त-मुनि याद नहीं आते और संसार के अखबार, व्यापार-धन्धा अथवा स्त्री आदि की याद आती है तो तू ही विचार कर कि तेरी परिणति किस ओर जा रही है? - आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी, श्रावकधर्मप्रकाश, पृष्ठ ८९