Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 77
________________ १५२ भक्तामर प्रवचन दी - ऐसे दृष्टिवन्त को अप्रतिहत भाव से समकित होता है । उसको एक अपेक्षा से क्षायिक जैसा समकित होता है। क्षायिक के काल में मोहक्षय हो जाता है तथा केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। जो निज स्वभाव से एकाकार होकर चिदानन्द स्वभाव का स्मरण करता है, उसकी क्रमबद्ध की श्रद्धा में पर के कर्तापने की दृष्टि छूट जाती है। इसप्रकार जिसे सर्वज्ञ स्वभाव की दृष्टि होती है, वह सर्वज्ञ का भक्त है। उसे केवलज्ञान की श्रद्धा है, वस्तु-स्वभाव का निर्णय है। वस्तु- स्वभाव के निर्णय वाले को सच्चा पुरुषार्थ है । हे नाथ ! ऐसे सच्चे पुरुषार्थी जीव आपकी शरण में आते हैं और आपकी शरण से उनके सभी बन्धन टूट जाते हैं, इसमें जरा भी शंका नहीं है। शास्त्राभ्यास कैसे करें ? तत्त्वज्ञान के कारण अध्यात्मरूप द्रव्यानुयोग के शास्त्र हैं और कितने ही जीव उन शास्त्रों का भी अभ्यास करते हैं; परन्तु वहाँ जैसा लिखा है, वैसा निर्णय स्वयं करके आपको आपरूप पर को पररूप और आस्रवादि का आस्रवादिरूप श्रद्धान नहीं करते। मुख से तो यथावत् निरूपण ऐसा भी करें, जिसके उपदेश से अन्य जीव सम्यग्दृष्टि हो जायें। परन्तु जैसे कोई लड़का स्त्री का स्वांग बनाकर ऐसा गाना गाये जिसे सुनकर अन्य पुरुष स्त्री कामरूप हो जायें; परन्तु वह तो जैसा सीखा, वैसा कहता है, उसे कुछ भाव भासित नहीं होता; इसलिये स्वयं कामासक्त नहीं होता। उसीप्रकार यह जैसा लिखा है, वैसा उपदेश देता है, परन्तु स्वयं अनुभव नहीं करता। यदि स्वयं को श्रद्धान हुआ तो अन्य तत्त्व का अंश अन्य तत्त्व में न मिलाता; परन्तु इसका ठिकाना नहीं है, इसलिये सम्यग्ज्ञान नहीं होता । • पण्डित टोडरमलजी, मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २३७ काव्य ४७ मत्तद्विपेन्द्र - मृगराज - दवानलाहिसंग्राम-वारिधि-महोदर - बन्धनोत्थम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ।। ४७ ।। हिन्दी काव्य महामत्त गजराज और मृगराज दवानल । फणपति रण परचंड नीर-निधि रोग महाबल । बन्धन ये भय आठ डरपकर मानो नाशै। तुम सुमरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै ।। इस अपार संसार में, शरन नाहिं प्रभु कोय । यातें तुम पद-भक्त को, भक्ति सहाई होय ।। ४७ ।। अन्वयार्थ – (यः मतिमान्) जो बुद्धिमान पुरुष (तावकं इमम्) आपके इस (स्तवम्) स्तोत्र को (अधीते) पढ़ता है, पाठ करता है (तस्य) उसका (मत्तद्विपेन्द्र - मृगराज) मदोन्मत्त हाथी, सिंह तथा ( दवानल-अहि-सङ्गग्रामवारिधि-महोदर-बन्धन) दावानल, सर्प, संग्राम, सागर, जलोदर तथा बन्धन से (उत्थम्) उत्पन्न हुआ (भयम्) डर (भिया इव) मानो डर के कारण से ही (आशु नाशं उपयाति) शीघ्र ही नाश हो जाता है। काव्य ४७ पर प्रवचन इस काव्य में यह कहा है कि जिनेन्द्र भगवान के सच्चे भक्त को सात प्रकार के भय नहीं होते। उसके समस्त भयों के कारण एकसाथ नष्ट हो जाते हैं। जो बुद्धिमान त्रिकाली द्रव्यस्वभाव का आलम्बन लेकर निमित्त एवं व्यवहार की रुचि छोड़कर तथा निमित्त से लाभ माननेरूप भ्रान्ति छोड़कर जिनेन्द्र देव का स्मरण व भक्ति करते हैं, उन्हें सर्व प्रकार के भयों से रहित निर्द्वन्द्व शान्तस्वभाव की प्राप्ति होती है।

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