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काव्य ४६
आपाद - कण्ठमुरुशृंखल - वेष्टितांगा
गाढं वृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट- जंघा । त्वन्नाम - मन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति ॥ ४६ ॥ हिन्दी काव्य
पाँव कंठतैं जकर बाँध साँकल अति भारी । गाढ़ी बेड़ी पैरमाहिं जिन जाँघ विदारी ।। भूख प्यास चिंता शरीर दुःखजे विललाने ।
सरन नाहिं जिन कोय भूप के बन्दीखाने ।।
तुम सुमरत स्वयमेव ही, बन्धन सब खुल जाहिं । छिनमें ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं ॥ ४६ ॥ अन्वयार्थ - (आपाद - कण्ठम् ) चरणों से लेकर ग्रीवा तक (उरुशृंखलवेष्टित अङ्गाः) बड़ी-बड़ी मजबूत सांकलों से जकड़ दिया है- कस दिया है अंग-अंग जिसका, (गाढम् ) खूब अधिक मजबूत रूप से (बृहत् निगड़कोटि-निघृष्ट-जंघा) बड़ी-बड़ी लोह श्रृंखलाओं के अग्रभाग से रगड़कर छिल गई हैं जाँघें जिनकी, वे मनुष्य (त्वत् नाममन्त्रम्) आपके नामरूपी मंत्र को (अनिशम् स्मरन्तः) दिन-रात स्मरण करने से, जपने से (सद्यः) तत्काल (स्वयं) अपने आप (विगत -बन्ध - भया: भवन्ति) बन्धन के भय से मुक्त हो जाते हैं।
तात्पर्य यह है कि - हे भगवन् ! जिसका शरीर ऐड़ी से लेकर चोटी तक बड़ी-बड़ी साँकलों से जकड़कर कस दिया गया हो, साँकलों की रगड़ से जिसकी जंघाएँ छिल गयी हों- ऐसे कारागार में बन्दी पुरुष, आपके नाम के स्मरणरूपी मंत्र का जाप करने से तुरन्त ही बन्धन के भय से मुक्त हो जाते हैं।
काव्य ४६ पर प्रवचन
इस काव्य में आचार्यदेव भगवान की भक्ति करते हुए आत्मा के अबन्ध स्वभाव का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि हे नाथ ! वर्तमान में हमारी पर्याय
गाथा-४६
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राग है, इसकारण कर्मका निमित्त है; किन्तु जब अबन्ध स्वभाव के आश्रय से राग का अभाव होगा तो कर्म का निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध भी छूट जायेगा । स्वभाव में भव और भव का कारण (विकार) नहीं है। हे नाथ ! आपके भव हो, तो हमारे भव हों । जब आपके ही भव का अभाव हुआ है तो आपके भक्तों के भव का अभाव क्यों नहीं होगा? अवश्य ही होगा। आपके भक्तों को भव कैसे हो सकता है? जिसने अबन्ध स्वभावी आत्मा का आश्रय लिया है, उसको संसारबन्धनरूप मैल कैसे रह सकता है?
आपादकण्ठ अर्थात् पैरों से कण्ठ तक कसकर बेड़ियाँ बाँधी हों, कोई भी अंग खुला न हो, मोटी-मोटी साँकलों से शरीर जकड़ा हुआ हो, कर्म दशकरणों में नित्ति व निकाचित कर्म बँधा हो, तो वे भी मुझे बाधक नहीं हो सकते । साधक को अन्तरंग में पूर्ण परमात्मा की दृष्टि वर्तती है। उनकी दृष्टि में अल्पज्ञता, राग-द्वेष या व्यवहार की मुख्यता नहीं आती। जिनको निमित्त, राग, व्यवहार या अल्पज्ञता की मुख्यता आ जाती है, वे वस्तुत: आपके भक्त नहीं है। आपका क्षायिकज्ञान - अखण्डज्ञान प्रगट है। आपकी वाणी में आया कि - 'मेरा स्वभाव सर्वज्ञ है । मैं ऐसे स्वभाव का स्मरण करता हूँ, इससे शीघ्र मुक्तिपद प्राप्त करूँगा।'
यहाँ कोई प्रश्न करेगा कि - जब सम्पूर्ण परिणमन क्रमबद्ध ही होता है तो 'शीघ्र' मुक्ति पद पाने की बात कहाँ से आयी ?
ज्ञानी को भव की शंका नहीं है, वह तो अबन्धपना साधता है। जिस ज्ञानी को ज्ञानस्वभाव की प्रतीति हुई है, उसके क्रम में मोक्ष शीघ्र ही अल्पकाल में ही प्रकट होनेवाला है तथा उसके पुण्यानुबन्धी पुण्य बँधता है। वस्तुस्वरूप की सच्ची श्रद्धा होने से ज्ञानी को बन्धन का भय नहीं होता। 'हमारे भव होगा ..' - ऐसी शंका भी नहीं होती। प्रवचनसार की ८०वीं गाथा में कहा है कि - "जो सर्वज्ञ के द्रव्य-गुण- पर्याय के स्वरूप को जानता है, उसका मोह नष्ट हो जाता है। जिसने सर्वज्ञ को अपनी दृष्टि में लिया तथा निमित्त, अल्पज्ञता व राग के आश्रय से लाभ होने की विपरीत मान्यता छोड़