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भक्तामर प्रवचन केवल वाणी से स्तोत्र का काव्य-पाठ कर लेता है, उसकी यह बात नहीं है; बल्कि जो निश्चय से चैतन्य प्रभु आत्मा का भक्त है और व्यवहार से सर्वज्ञ परमात्मा का भक्त है, वह समुद्र तो पार होता ही है; भवसमुद्र से भी पार हो जाता है। 'जैसे आप सर्वज्ञ हो, वैसा ही मैं भी सर्वज्ञस्वभावी ज्ञाता-दृष्टा हँ' - ऐसा आत्मभान जो हुआ है - वह सब आपकी ही भक्ति का प्रताप है, संसार-समुद्र पार उतारने में आपकी भक्ति नौका के समान है।
तारणहार स्वभाव को जाननेवाला ही तरने का उपाय बताता है। हे प्रभु ! आप महिमावंत हो, मैं भी शक्तिरूप से महिमावंत पदार्थ हूँ। जहाँ दोनों महिमावंत मिले हों, वहाँ तीसरा कौन इसका श्रेय ले सकता है ? हे प्रभु ! जब मुझे केवलज्ञान प्राप्त करना है और संसार-समुद्र तरना है तो फिर इस जल-समुद्र से तर जाने में क्या बड़ी बात है ? जैसे आप वर्तमान में हैं, मुझे वैसा होना है। मेरे पुण्य का रस वृद्धि को प्राप्त होने से आप जैसा तीर्थंकर पद भी प्राप्त होगा।
मुझे निश्चय-स्वभाव का स्मरण तथा पुण्य-पाप व निमित्त का विस्मरण करना है। नित्य-स्वभाव की निर्भयता में कोई भय नहीं है। जब मैं विकाररूपी शत्रु को जीतने के लिए तत्पर हूँ तो फिर बाहरी शत्रुओं को जीत लिया - तो इसमें क्या आश्चर्य है ? मैं संसार-समुद्र किनारे पर आ गया हूँ। अन्तर में निजशक्ति से भरा हूँ, बाहर से भी शक्ति से भरपूर हूँ - दोनों प्रकार से भरा-पूरा हूँ, अत: अब मुझे कोई डुबोनेवाला नहीं है।
मेरो धनी नहिं दूर दिसन्तर केई उदास रहैं प्रभु कारण,
केई कहैं उठि जांहि कहींक। केई प्रनाम करैं गदि मूरति,
केई पहाड़ चढ़े चढ़ि छींकै।। केई कहें असमान के ऊपरि,
केई कहै प्रभु हेठि जमीं के। मेरो धनी नहिं दूर दिसन्तर,
मोही में है मोहि सूझत नीकै।। - कविवर बनारसीदासजी, समयसार नाटक, बन्धद्वार, छन्द : ४८
काव्य ४५ उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः
शोच्यां दशामुपगताश्च्युत-जीविताशाः । त्वत्पाद-पंकज-रजोमृत-दिग्ध-देहा
मा भवन्ति मकरध्वज-तुल्यरूपाः ।।५।।
हिन्दी काव्य महा जलोदर रोग भार पीड़ित नर जे हैं। वात पित्त कफ कुष्ठ आदि जो रोग गहै हैं ।। सोचत रहैं उदास नाहिं जीवन की आशा।
अति घिनावनी देह धरै दुर्गन्धि-निवासा ।। तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावै निज-अंग। ते निरोग शरीर लहि, छिन में होय अनंग।।४५॥
अन्वयार्थ - (उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः) उत्पन्न हुए भयंकर जलोदर रोग के भार से टेड़ी हो गई है कमर जिसकी तथा (शोच्यां दशा- मुपगताः) शोचनीय, दयनीय दशा को प्राप्त हो गया है जो एवं (च्युतजीवित-आशाः) छोड़ दी है जीवन की आशा जिसने - ऐसे (माः) मनुष्य भी जब [ हे भगवन् ] (त्वत् पाद-पङ्कज-रजोमृत-दिग्धदेहा) आपके पाद-पद्यों की रज (धूलि) रूपी अमृत से अपने शरीर को लिप्त कर लेते हैं तो वे मनुष्य (मकरध्वज-तुल्यरूपाः) कामदेव के समान सुन्दर रूपवाले (भवन्ति) हो जाते हैं।
हे भगवन् ! जिसको अति कष्टदायक जलोदर जैसा भयंकर रोग भी हो गया हो, जिसके कारण पेट में पानी भर जाता है, उस बड़े हुए पेट के भार से कमर टेढ़ी पड़ गई हो; नितान्त शोचनीय दशा हो गई हो, जीवन की आशा छूट गई हो; तथापि यदि वह आपके चरणकमलों की रज को अपने शरीर पर लगाता है तो वह सचमुच ही कामदेव के समान रूपवान बन जाता है।