Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 72
________________ १४२ भक्तामर प्रवचन वर्तमान अवस्था में केवलज्ञान नहीं है, किन्तु जिसने केवलज्ञान की सत्ता को स्वीकार किया, निजस्वभाव के सन्मुख हो 'स्व' को स्वीकार किया है, उसे महा सातिशय पुण्यबन्ध होता है; पाप पलट जाता है, इससे बाहर का संग्राम तो क्या चीज है ? मोह राजा का संग्राम भी जीत लेता है। भावार्थ यह है कि हे नाथ! जैसे सूर्य की किरणों से अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसीप्रकार आपके यशोगान से आपका भक्त बड़ी-बड़ी सेनाओं को जीत लेता है। अपने अनन्त गुणों के समाज की मुख्यता जिसे हुई, उसकी सर्वत्र विजय ही विजय है। यदि बाह्य में बड़ी सेना को जीत लिया तो इसमें क्या आश्चर्य ? क्या समयसार के भक्ति अधिकार (३१, ३२, ३३ गाथा) में तथा यहाँ की भक्ति की बात में परस्पर विरोध है ? निश्चय से स्व को जीता व व्यवहार से पर को जीता, क्या ऐसा है ? नहीं, पर में कुछ जीतना-हारना नहीं है। निमित्त के कथन में बाह्य-संयोगों की बात आती है। आत्मा में अन्तर्मुख होने से जिसे अपूर्व आह्लाद आया, वह मिथ्यात्व को जीतनेवाला जिन हुआ अर्थात् विजयी हुआ और वह विजयी आत्मा अपने स्वभाव के ही गुण गाता है, इससे बाहर में भी जीत होती ही है - यह सहजस्वाभाविक ही है। इसीकारण उसने संग्राम जीता - ऐसा कहा जाता है। काव्य ४३ कुन्तान-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह वेगावतार - तरणातुर - योध - भीमे । युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षा स्त्वत्पाद-पंकज-वनाश्रयिणो लभन्ते ।।४।। हिन्दी काव्य मारै जहाँ गयन्द कुम्भ हथियार विदारै । उमगै रुधिर प्रवाह बेग जल-सम विस्तारै ।। होय तिरन असमर्थ महाजोधा बल पूरे । तिस रन में जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे ।। दुर्जय अरिकुल जीत के, जय पाढं निकलंक। तुम पद-पंकज मन बसै, ते नर सदा निशंक ।।४३।। अन्वयार्थ - (त्वत्पाद-पङ्कज-वन आश्रयिण:) आपके चरणकमलरूपी उपवन का आश्रय लेनेवाले भव्यजीव (कुन्त अग्र) भाले के नुकीले भाग से (भिन्न) भेदित हुए-क्षत-विक्षत हुए (गज-शोणित-वारिवाह) हाथियों के रक्तरूपी जलप्रवाह में (वेगावतार-तरण-आतर) तेजी से उतरने में तथा तैरने में उतावले (योध) योद्धाओं से युक्त (भीमे) भयंकर (युद्धे) युद्ध में (विजित-दुर्जय-जेय-पक्षाः) कठिनता से जीता जा सके - ऐसे शत्रुपक्ष को भी (जयं लभन्ते) आसानी से जीत लेते हैं। तात्पर्य यह है कि हे भगवन् ! आपका भक्त योद्धा बात की बात में दुर्जय दुश्मनों को परास्त कर देता है; क्योंकि वह आपके मंजुल चरणरूपी कमलों की छत्र-छाया में जा पहुंचा है। काव्य ४३ पर प्रवचन हे नाथ! जो आपके चरण-कमलरूपी वन का आश्रय लेता है, वह स्वरूप में एकरूप होकर ज्ञान-शान्ति के स्वाद सहित शीतलता प्राप्त करता है। जैसेहरे-भरे-शीतल वन की छाया का आश्रय लेनेवाले व्यक्ति का आताप मिट जाता है और शीतलता प्राप्त होती है; उसीप्रकार जो आपका निमित्त पाकर निश्चयाभासी. व्यवहाराभासी. उभयाभासी के लक्षण कोई नर निश्चय से आत्मा को शुद्ध मान, हुआ है स्वच्छन्द न पिछाने निज शुद्धता। कोई व्यवहार दान तप शीलभाव को ही, आत्मा का हित मान छोड़े नहीं मुद्धता ।। कोई व्यवहारनय-निश्चय के मारग को, भिन्न-भिन्न पहचान करै निज उद्धता । जाने जब निश्चय के भेद-व्यवहार सब, कारण को उपचार माने तब बुद्धता ।।५।। - पण्डित टोडरमलजी : पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, मङ्गलाचरण

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