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भक्तामर प्रवचन
अपने चैतन्य स्वभाव की शरण में, शीतल छाया में आता है; वह शान्ति व शीतलता प्राप्त करता है।
हे भगवन् ! युद्ध में मार-काट हो रही हो, पानी की तरह रक्त प्रवाहित हो रहा हो - ऐसे युद्ध में रक्तप्रवाह को चीरता हुआ भी यदि आपका भक्त लड़ाई में जाता है तो वहाँ भी पुण्ययोग से विजय ही प्राप्त करता है।
राजा मधु युद्ध करने गया, उसे वहाँ भयंकर तीर लगा, तीर लगते ही उसे वैराग्य आ गया तो तुरन्त वहीं युद्धभूमि में ही शरीर आदि से ममता छोड़कर समाधिमरण को प्राप्त हो गया। जो मोहशत्रु जीतने लायक था, उसने समाधि द्वारा उसे जीत लिया । इसीतरह यदि कोई पूर्व के पुण्य से बाह्य युद्ध को जीतता है तो वह भी आपकी भक्ति का ही प्रताप है।
भगवान की भक्ति के कारण ही शान्ति प्राप्त होती है और भगवान की भक्ति के कारण ही जीत मिलती है। जहाँ देखो वहीं, सब जगह भगवन् ! आपकी ही महिमा दिखाई देती है ।
हे नाथ ! आपका भक्त अन्तर-बाह्य दोनों संग्राम जीतता है। सम्यग्दृष्टि युद्ध में भी आत्मभान - स्व-पर विवेक रखता है। स्वभाव के अनुमोदन से पुण्य में रस बढ़ जाता है, अतः यदि बड़ी भारी सेना को जीत लेवे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है - यह सब आपकी भक्ति का ही प्रताप है। अजेय शत्रुओं को भी आपका भक्त क्षणभर में जीत लेता है।
भगवान नेमिनाथ गृहस्थ दशा में तीन ज्ञान के धारी थे । वे जरासंघ के सन्मुख युद्ध में गये थे। उनके पास अनेक विद्यायें थीं। इन्द्र ने भी उनकी रक्षा करने के लिए रथ सहित सारथी भेजा था। यद्यपि इन्द्र जानता था कि भगवान नेमिनाथ इसी भव से मोक्ष जानेवाले हैं। उनका शरीर वज्र जैसा मजबूत है, उन्हें कोई परास्त नहीं कर सकता; फिर भी भक्तिवश उसको रक्षा का विकल्प आ गया । जरासंघ ने दैवी अस्त्रों का प्रयोग किया, किन्तु नेमिनाथ श्रीकृष्ण के आगे खड़े हो गये तो चक्ररत्न शान्त होकर श्रीकृष्ण के हाथ में आ गया। इसप्रकार श्रीकृष्ण की विजय हुई और जरासंघ युद्ध में पराजित होकर मारा गया।
हे भगवन् ! जिसने आपके चरणकमल का आश्रय लिया, आपकी भक्ति के प्रसाद से उसकी संग्राम में भी जीत ही होती है; क्योंकि आपके चरण सान्निध्य में रहनेवालों को पवित्रता के साथ ऐसा पुण्य भी बँधता है, जिसके निमित्त से वे लौकिक युद्ध में भी जीत जाते हैं।
काव्य ४४
अम्भोनिधौ क्षुभित भीषण - नक्र-चक्र
पाठीन- पीठ-भय-दोल्वण- वाडवाग्नौ । रंगतरंग-शिखर-स्थित- यान पात्रा
स्वासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति । ।४४ ॥ हिन्दी काव्य
नक्र चक्र मगरादि मच्छ करि भय उपजावै । जामैं बड़वा अग्नि दाहतें नीर जलावै ।। पार न पावै जास थाह नहिं लहिये जाकी । गरजै अतिगम्भीर लहर की गिनती न ताकी ।। सुखसों तिरै समुद्र को, जे तुम गुन सुमराहिं । लोल-कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहिं ।। ४४ ।। अन्वयार्थ (भीषण-नक्र-चक्र-पाठीन पीठ) भयंकर मगरमच्छ एवं घड़ियालों और पाठीन नामक भीमकाय मत्यों से (क्षुभित) आन्दोलित (अम्भोनिधौ) सागर में (भय - दोल्वण - वाडवाग्नौ ) [ जिसमें ] भयंकर विलक्षण बड़वानल सुलग रहा हो [ ऐसे ] (रङ्गतरङ्ग-शिखर- स्थित ) तीव्रता से उछलती हुई लहरों के ऊपरी सतह पर स्थित डगमगाते हुए (यान - पात्रा :) जहाज के पुरुष (भवत: स्मरणात्) आपका स्मरण करने से ( त्रासं विहाय ) दुःख से मुक्त होकर (व्रजन्ति) आगे बढ़ जाते हैं।
काव्य ४४ पर प्रवचन
हे नाथ ! समुद्र में बड़े मगरमच्छ व अन्य क्रूर जलचर तो होते ही हैं एवं यदि उसमें बड़वानल (समुद्री अग्नि) भी प्रगट हो गई हो और तूफानों से समुद्र आन्दोलित हो रहा हो, तब ऐसी स्थिति में समुद्र को पार करना कितना कठिन है ! किन्तु आपके भक्त सम्यग्दृष्टि जीव आपके स्मरण मात्र से ऐसे भयंकर समुद्र को भी पार कर लेते हैं। हे भगवन् ! यह आपकी भक्ति का ही प्रताप है। जो
१) यद्यपि निश्चय से तो यह जीव अपने स्वरूप की साधना द्वारा ही मुक्ति पद प्राप्त करता है; तथापि उसके हृदय में आपके प्रति अनन्त भक्ति होती है, इसलिए व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि आपके नामस्मरण से पार होता है।