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काव्य २५
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्
त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय - शंकरत्वात् । धातासि धीर - शिव-मार्ग-विधेर्विधानाद्
व्यक्तं त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि ।। २५ ।। हिन्दी काव्य
तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमान तें । तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रये विधानतैं ।। तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतें । नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचारतें ।। २५ ।।
अन्वयार्थ - (विबुध अर्चित) देवों, गणधरों एवं विद्वज्जनों द्वारा पूजित हे प्रभु ! (बुद्ध: त्वमेव) आप ही वास्तव में बुद्ध हो; (बुद्धिबोधात्) क्योंकि आपने केवलज्ञान प्राप्त किया है अथवा (विवुधार्चित बुद्धिबोधात् बुद्धः त्वम् एव) आपके केवलज्ञान की पूजा देवों, गणधरों द्वारा की गई है इसलिए आप ही वास्तव में बुद्ध हो । ( त्वं शङ्करः असि भुवनत्रय शङ्करत्वात्) तीनों लोकों को सुख-शान्ति में निमित्त होने से तुम ही शङ्कर हो । (धीर ! शिव-मार्ग विधेः विधानात् त्वम् एव धाता असि) हे धैर्य धारक परमेश्वर ! मोक्षमार्ग की विधि बतलानेवाले होने से आप ही विधाता हो, मोक्षरूपी सुख की सृष्टि करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हो । (त्वम् एव व्यक्तं पुरुषोत्तमः असि) आप ही प्रगट पुरुषोत्तम (विष्णु) हो।
काव्य २५ पर प्रवचन
देखो ! जिसे वीतराग, सर्वज्ञ दशा प्रगट हुई है, दिव्य परमात्मदशा प्रगटी है, वह देव है। हे नाथ ! अनेक गणधर विद्वान आपको पूज्य मानकर स्तवन करते हैं। आपकी बुद्धि केवलज्ञान स्वरूप हो गई है, इसलिए आप बुद्ध हो । जो पूर्ण वीतराग हो, वही सर्वज्ञ होता है - ऐसा हुए बिना किसी को बुद्ध मानना व्यर्थ है । भगवन् ! आपने केवलज्ञान रूप बुद्धि प्राप्त की है; इसलिए चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि एवं मन:पर्यय) के धारक गणधर भी आपकी पूजा करते हैं; इसलिये आप बुद्ध हैं । दुनियाँ जिसे बुद्ध कहती है, वे तो आत्मा को क्षणिक ही
काव्य - २५
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मानते हैं इसलिए वे सर्वज्ञ नहीं हैं; वे आत्मा को वस्तुरूप नित्य नहीं मानते हैं। उनके मत में कोई सर्वज्ञ नहीं है। उन्हें सर्वज्ञ के स्वरूप की खबर ही नहीं है। वे वृद्धावस्था, रोग, मरणादि को दुःख मानकर उदास होने के लिए कहते थे - ऐसे क्षणिकपने की मान्यतावाले को केवलज्ञान नहीं हो सकता। हे नाथ! आपने प्रत्येक वस्तु को नित्य-अनित्य आदि सम्पूर्ण धर्मों से जाना है; इसलिए आप बुद्ध हैं और सम्यग्ज्ञानी आपको ही देवरूप में पूज्य मानते हैं; इसलिए आप ही सच्चे 'बुद्धदेव' हैं।
शङ्कर :- हे नाथ! आप ही सच्चे सुख के प्राप्त करने में निमित्त हैं, इसलिए आप शङ्कर हैं । जो जगत का नाश करे, वह शङ्कर नहीं है। पुण्य-पाप, मिथ्यात्वादि सर्वदोष एवं विकार का संहार कर आप पूर्ण शुद्धदशा प्रकट करनेवाले हैं; इसलिये आप ही वस्तुतः 'शङ्कर' हैं।
धीर :- हे नाथ ! आप इतने धैर्यवान हैं कि तीनकाल के अनन्तानन्त पदार्थों को अनन्तकाल तक जानते हुए भी आप धैर्य नहीं छोड़ते हैं। लोगों के दुःखों को देखकर भी आपका धैर्य नहीं छूटता है । तीनलोक के सर्व पदार्थ स्वयं अपने कारणों से परिवर्तित होते रहते हैं। आप जगत के जीवों की सहायता करने की रागबुद्धि नहीं करते; अतः आप पूर्ण सच्ची शान्ति धारण करते हैं; इसलिए आप 'धीर' हैं।
ब्रह्मा:- अन्य मत में मान्य जगत का कर्ता ब्रह्मा वस्तुतः कोई नहीं है। पराश्रय की श्रद्धा छोड़कर पूर्णानन्द स्वभाव के आश्रय से मोक्षमार्ग का उपाय होता है - ऐसे मोक्षमार्ग की विधि बतानेवाले होने से आप ही 'ब्रह्मा' हैं। जो तिलोत्तमा नामक अप्सरा के रूप से आकृष्ट होकर तपस्या से भ्रष्ट हो गये; वह वास्तविक ब्रह्मा नहीं है ।
पुरुषोत्तम :- हे नाथ ! आप प्रकट रूप से पुरुषों में उत्तम हैं। संसारीजीव नर-नारक- तिर्यंच - देव नामक चारों गतियों में मोह के कारण भ्रमण करते हैं। आपने उन्हें नर से नारायण (प्रभुत्व ) की प्राप्ति का उपाय बताया- इसलिए ज्ञानीजन आपको ही पुरुषोत्तम मानते हैं। आत्मा केवलज्ञानस्वरूप है, वह अनासक्त भाव से भी पर का कुछ नहीं कर सकता। अन्य का 'कुछ' करने और अनासक्ति रखने की मान्यता ही मिथ्या है। आपने सम्यक् प्रकार से जिस विधि से चिदानन्द स्वरूप की श्रद्धा, ज्ञान एवं लीनता द्वारा अपना विकास कर परमपद प्राप्त किया, वही विधि औरों को भी बताई है; इसलिए आप ही 'पुरुषोत्तम' है।