Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 49
________________ ९६ भक्तामर प्रवचन काव्य-२४ मामतहा (७) ईश्वर :- हे भगवन् ! आपने पूर्ण विकास प्राप्त कर लिया है, अब कुछ भी करना शेष नहीं है। आप कृत-कृत्य हो गये; इसलिए आप ईश्वर हैं। श्रीमद् रायचन्द्रजी ने आत्मसिद्धि में कहा है : कर्ता ईश्वर है नहि, ईश्वर शुद्ध स्वभाव। अथवा प्रेरक ते गण्ये ईश्वर दोष प्रभाव ।। ईश्वर किसी का कर्ता नहीं है, वह वीतरागी, सर्वज्ञ, पूर्णानन्द स्वरूप है। यदि उसको किसी अन्य का कर्ता मानें तो उसके अपूर्णता, वासना, विकाररूप दोष विद्यमान हैं - ऐसा भी मानना पड़ेगा। फिर उसकी उस दशा को पूर्ण शुद्ध दशा नहीं कह सकते। इसलिए अन्य मतों में कर्त्तारूप कल्पित ईश्वर, सच्चा ईश्वर नहीं है। हे भगवान ! वास्तविक रूप से तो आप ही सच्चे ईश्वर हैं। (८) अनन्त :- आप अनादिकाल से हैं एवं अनन्त काल रहेंगे, आप अनन्त शक्ति एवं गुणों के धारक हो, आपने प्रत्येक द्रव्य का अनादि अनन्तस्वरूप बताया है; इसलिए आप अनन्त हैं। (९) अनङ्गकेतु :- आप पाँचों शरीरों के संयोग को दूर करने में निमित्त हैं; इसलिये आप अनंगकेतु हैं। आपने केवलज्ञान प्रकट कर दिव्य उपदेश दिया, अनेक जीवों ने आपकी दिव्यध्वनि को सुनकर अपना संशय नष्ट किया और अन्त में ज्ञानानन्द की लीनता द्वारा वे काम-भोगादि सर्वप्रकार की इच्छा नष्ट करते हैं - उन सब में आप निमित्त हैं। (१०) योगीश्वर :- हे भगवन् ! आप पुण्य-पाप का सम्बन्ध तोड़कर निर्मल ज्ञान स्वभाव में लीन होनेवाले योगीश्वर हैं अथवा मुनियों के स्वामी होने से आप योगीश्वर हैं। आपके मन-वचन-काय के कंपन व प्रमाद का अभाव है। आप अपने स्वभाव की लीनता को जानते हैं और आप ही के अनुसार भव्यजीव पर-सन्मुखता की दृष्टि को छोड़कर स्व-सन्मुख होते हैं; इसलिए आप उनके लिए इसमें निमित्त हैं। (११) अनेक :- आत्मा एक होते हुए भी अनन्त गुणों एवं अनन्त पर्यायों सहित है; इसलिये आप अनेक हैं। दो वर्ष के बालक को अपने बड़े की शादी के गाने-बजाने आदि में मजा नहीं आता; जो नाना मिठाइयाँ बनती हैं, उनके स्वाद से भी वह अपरिचित है। इसीप्रकार जो आत्मा की शक्ति से अपरिचित है, वह जिज्ञासावृत्ति से भी रहित है, उसे आत्मा की चर्चा में आनन्द नहीं आता । निर्विकार स्वभाव के आश्रय से ही पर्याय का विकार नष्ट होता है। आपने यह सब कुछ ज्ञान प्रकट किया है। अनेक भव्य-जीवों ने इस ज्ञान को जानकर मोक्ष-मार्ग पर चलकर मोक्षदशा पाई है। अतः आप उनकी मोक्षप्राप्ति में निमित्त हैं। (१२) एक :- आप वस्तु की दृष्टि से एक हैं। यह आपने ही बताया कि प्रत्येक आत्मा का अपने में ही एक व अनेकपना है। (१३) ज्ञान-स्वरूप :- आत्मा मात्र ज्ञान का पिण्ड है। जैसे लेंडीपीपल में से (चरपरापना) तीक्ष्णता उसकी शक्ति में से प्रकट होती है; वैसे ही आत्मा पूर्णतः ज्ञानस्वरूप है। जो अन्तर्मुख होकर ऐसी आत्मा की पहचान करे, उसको सर्वज्ञदेव की पहचान होती है। (१४) विदितयोग :- रत्नत्रयरूप योग के ज्ञाता होने से अथवा अपने पूर्णज्ञान स्वरूप होने से आपने सबकुछ जान लिया है, कुछ भी जानना शेष नहीं रहा; इसलिए आप विदितयोग अर्थात् ज्ञान-स्वरूप हो। (१५) अमल :- कोई कहे - तीनकाल का ज्ञान होने से मोक्ष नहीं; क्योंकि संसार में अधिक ज्ञानवाले को अधिक राग आता है, तब भगवान तो एक साथ तीनकाल को जानते हैं तो उनको राग होता होगा न? नहीं; उन्हें किसी प्रकार का थोड़ा सा भी राग-द्वेष नहीं है, इसलिए वे अमल हैं। इसप्रकार आपके भक्त सन्तजन आपको नानाप्रकार से स्मरण करके आपके प्रति भक्ति प्रगट करते हैं।

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