Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 57
________________ ११२ भक्तामर प्रवचन पुण्य का बन्ध होता है, जिसके फलस्वरूप उसका जन्म शुभ क्षेत्र में होता है। साधारण जीव को ऐसा पुण्य नहीं होता है। जो वर्तमान में इस क्षेत्र में जन्म लेते हैं, वे पूर्व में आत्मा के विराधक जीव होते हैं। यहाँ वर्तमान में मनुष्य होनेवाला जीव पूर्वभव में नियम से मिथ्यादृष्टि था, जिसके सम्यग्दर्शन होने पर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध होता है, उसके पुण्य का अनुभाग विशिष्ट प्रकार का हो जाता है और पाप का अनुभाग और स्थिति कम होते जाते हैं, पुण्य की स्थिति भी कम हो जाती है; किन्तु उसका अनुभाग बढ़ता जाता है। यदि तीर्थंकर भगवान की वाणी में किसी के लिए अल्पकाल में मुक्ति जाने का कथन आये तो यह उस प्राणी का अद्वितीय सम्मान है, जो तीनलोक के अन्य सभी सम्मानों से श्रेष्ठ है; किन्तु यदि उनकी वाणी में किसी के लिए अभव्य होने का कथन हो तो उससे बढ़कर कोई अन्य अपमान नहीं है। लौकिक में मान मिले या न मिले, उसके आधार पर किसी का मूल्यांकन नहीं है। जिसके अन्तरंग में चैतन्य स्वभाव का भान होता है, वह अंतरंग में अभिमान रहित होता है और उसके सच्चे देवादि के प्रति विनयभक्ति आदि का राग रहता है, उसके फल में अचिन्त्य पुण्य का बन्ध होता है । जो तत्त्वज्ञानपूर्वक मान छोड़ता है, उसको उत्कृष्ट सम्मान मिलता है। तीर्थंकर का वास्तविक वर्णन ऐसा ही होता है, इसलिए उनकी पहचान करनी हो तो उन्हें पवित्र भाव से देखो, तभी सच्चे देव की पहचान हो सकती है। अपनी कल्पना से उनकी यथार्थ पहचान नहीं होती । प्रमादी होना योग्य नहीं गिहि वावार विक्को, बहु मुणि लोए वि णत्थि सम्मत्तं । आलंवण णिलयाणं, सद्धाणं भाय किं भणियो । कई अज्ञानी जीव अपने को सम्यग्दृष्टि मानकर अभिमान करते हैं, उनसे आचार्य कहते हैं- हे भाई! पंच महाव्रत के धारी मुनि भी आपा पर को जाने बिना द्रव्यलिंगी ही रहते हैं तो फिर गृहस्थों की तो बात ही क्या कहें? इसलिए जिनवाणी के अनुसार तत्त्व-विचार में उद्यमी रहना योग्य है। थोड़ा-सा ज्ञान करके अपने को सम्यक्त्वी मानकर प्रमादी होना योग्य नहीं। - उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला, श्लोक ६४ काव्य ३१ छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्क-कान्त मुच्चैः स्थितं स्थगित - भानु-कर-प्रतापम् । मुक्ता-फल- प्रकर- जाल- विवृद्ध-शोभं प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ।। ३१ । हिन्दी काव्य ऊँ रहें सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपैं अगोप । तीन लोक की प्रभुता कहैं, मोती-झालरसौं छबि लहैं ।। ३१ ।। अन्वयार्थ (शशाङ्क कान्तम्) चन्द्रमा के समान सुन्दर कान्ति युक्त (मुक्ताफल- प्रकर-जालविवृद्ध - शोभम् ) मणि-मुक्ताओं की झालरों से बढ़ गई है शोभा जिनकी - ऐसे आपके मस्तक पर लगे हुए - लटके हुए तीनों छत्र सुशोभित हो रहे हैं तथा ( स्थगित - भानुकरप्रतापम्) सूर्य की किरणों के आतप (प्रभाव) को रोकते हुए वे मानो ( त्रिजगतः ) तीनों लोकों के (परमेश्वरत्वम्) परमेश्वरपने को या प्रभुता को ( प्रख्यापयत्) प्रगट करते हुए (विभाति) सुशोभित हो रहे हैं। - काव्य ३१ पर प्रवचन भगवान के ऊपर रत्नजड़ित तीन छत्र होते हैं, उनका पुण्य सब प्रकार से उत्तम है। उनके शरीर में पुण्य प्रकृति कैसी होती है, यह बताते हैं । जो तीर्थंकर भगवान को राग होना, उपसर्ग होना, दवा, आहार आदि ग्रहण करना माने, वह अरहंतदशा में होनेवाले पुण्योदय को नहीं जानता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के पक्षवालों को सर्वज्ञ भगवान के स्वरूप का भान नहीं है। तीर्थंकर भगवान के प्रतिकूलता या रोग का संयोग नहीं होता है। जैसे - छतरी सूर्य किरणों के संताप से बचाती है, वैसे ही आपके तीन छत्र भव्यजनों को संसार के आताप से बचाने में निमित्त हैं। पुण्य का वर्णन पुण्य की

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