Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ ११८ भक्तामर प्रवचन हे भगवान ! आप पूर्ण विकसित हुए हैं और आप ही भव्यरूपी कमलों को विकसित करने में कारण हैं । इस भक्ति में शुभ-भाव आते हैं, किन्तु उनमें राग की मुख्यता नहीं है। शरीर तथा वचन की क्रिया से पुण्य-पाप नहीं है, किन्तु शुभ-भाव से पुण्य है। गाय को हरी घास डालने में जो अनुकम्पा का भाव है, वह शुभ-भाव है, वैसे ही भगवान की भक्ति का भाव शुभ है। देव भक्ति-भाव से पुष्पवृष्टि करते हैं। वे पुष्प मन्दार, सुन्दर, पारिजात आदि कल्पवृक्षों के हैं। वे मानो आपके पवित्र वचनों के विस्तार के द्योतक हैं। भक्त कहता है कि हे प्रभु ! जगत में जो भी सुन्दरता दिखाई देती है, मैं उसमें आपके प्रिय वचनों की दिव्यता ही देखता हूँ, अन्य किसी की महत्ता दृष्टिगोचर नहीं होती है। हे नाथ! मैं पुष्पवृष्टि को आपके वचनों के प्रवाह का ही रूप मानता हूँ अथवा ऐसा लगता है कि वर्षा की धारा जानकर पक्षीगण आपकी पवित्र वाणी सुनने के लिए पंक्तिबद्ध होकर आते हैं। आपके मनोहर वचनों से अखिल विश्व प्रभावित एवं गौरवान्वित होता है। मैं आपकी अद्भुत महिमा अपनी असमर्थ वाणी से कैसे कहूँ ? मेरा आत्मा अन्तर में खिलकर जब आप जैसा पूर्ण विकसित हो, तब कहीं मुझसे आपकी पूर्ण आराधना हो सकेगी। महाव्रतधारी भावलिंगी संत श्री मानतुङ्ग आचार्य के भक्ति के विकल्परूप में इस अद्भुत स्तुति की रचना हुई है। केवलज्ञानी की महिमा केवली जिनेश परवस्तु को न गहै तजै, तथा पररूप न प्रनवै तिहुँ काल में।। जातें ताकि ज्ञानजोति जगी है अकंपरूप, छायक स्वभावसुख वेवै सर्व हाल में ।। सोई सर्व वस्तु को विलोकै जान सरवंग, रंच हून बाकी रहै ज्ञान के उजाल में। आरसी की इच्छा बिना जैसे घटपटादिक, होत प्रतिबिंबित त्यों ज्ञानी गुनमाल में।। - कविवर वृन्दावनदास : प्रवचनसार परमागम, छन्द १३६ काव्य ३४ शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभा विभोस्ते लोकत्रये द्युतिमतां द्यतिमाक्षिपन्ती। प्रोद्यदिवाकर-निरन्तर-भूरि-संख्या दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ।।३४ ।। हिन्दी काव्य तुम तन-भामण्डल जिनचन्द, सब दुतिवंत करत है मन्द। कोटिशंख रवि तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करै अछाय ।।३४ ।। अन्वयार्थ - (विभोः ते) हे प्रभो ! आपके (शुम्भत्प्रभा-वलयभूरि-विभा) अत्यन्त शोभनीक प्रभामंडल की अतिशय जगमगाती ज्योति (प्रोद्यत् दिवाकर-निरन्तर-भूरि-संख्या) प्रकृष्ट रूप से उदीयमान असंख्य सूर्य को सघन-अविरल जगमगाती हुई तेजयुक्त कान्ति के सदृश है। (लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिम्) तीनों लोकों में जितने भी देदीप्यमान पदार्थ हैं उनकी द्युति को (आक्षिपन्ती) लज्जित करती हुई, तिरस्कृत करती हुई (सोम-सौम्याम् अपि) चन्द्रमा सुदृश सौम्य-शीतल होने पर भी (दीप्त्या) अपनी कान्ति से (निशाम् अपि) रात्रि को भी (जयति) जीतती है। काव्य ३४ पर प्रवचन इस काव्य में भगवान के भामण्डल का कथन है। प्रभु ने सर्वज्ञ पद प्राप्त किया है। उनके शरीर की कान्ति उत्कृष्ट तेजयुक्त होती है। मानो वह स्वयं ही भामण्डल बन गई हो। उनके अन्तर में चैतन्य धातु विकसित हो गई है, उससे शरीर भी बदल गया है; अतः शरीर में प्रकाश का मण्डल प्रभातकालीन प्रकाश की असाधारण शोभा सहित होता है। हे प्रभु! हजारों सूर्यों के समान आपके भामण्डल की अतिशय शोभा तीन लोक के समस्त कान्तिमान पदार्थों की तुच्छता एवं आपकी महानता प्रकट कर रही है तथा चन्द्र के समान सुन्दर होने से रात्रि का भी अभाव करती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80