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भक्तामर प्रवचन इस स्तोत्र में मुख्य रूप से तो अंतरंग गुणों का ही वर्णन है। जिसे आत्मज्ञान है, आत्मा के आनन्द का आश्रय है, वह स्वभाव से ही निर्भय होता है। उसे मदोन्मत्त हाथी का भी भय नहीं होता।
मदोन्मत्त हाथी के मस्तिष्क से मद झरता है, मद की गंध से उस पर भ्रमर गुंजार करते हैं। वह हाथी स्वयं भी मदसे मलिन हो जाता है, इस कारण उसे क्रोध आ जाता है, ऐसा क्रोधित मदोन्मत्त हाथी जोर से हमला करे एवं जगत को कुचलता फिरे, तब भी हे नाथ! आपका भक्त उससे भयभीत नहीं होता । जिसने आपको पहचानकर निश्चय-व्यवहाररूप भक्ति में मन लगाया है, उसके पूर्व पुण्य का उदय आवे या पाप का उदय आये, उससे प्राप्त अनुकूल व प्रतिकूल संयोग भी आये तथापिवह चिदानन्दस्वरूप को पाने के लिए उद्यत रहता है। वह अनुकूलता या प्रतिकूलता से क्षुभित होकर स्वरूप में शंका नहीं करता। धर्मात्मा प्रतिकूल संयोग को सहन करता है। जिसे एक समय में ज्ञायक-पूर्ण शुद्धस्वभाव की रुचि हुई है, उसके पूर्व कर्म के उदयानुसार प्रतिकूलता भी हो तो क्या ? हे भगवन् ! आपका भक्त उससे घबराता नहीं है और अन्तर में ध्रुवज्ञातादृष्टिको नहीं छोड़ता है।
भक्त के अन्तर में अपनी आत्मा का अखण्ड आश्रय है, उसे उसी की मुख्यता रहती है; तथापि भक्ति के विकल्प में विनय से सद् निमित्तों का आश्रय करता है। हे प्रभु ! ऐसे ज्ञानी भक्तजनों को आपकी ही शरण है, उसके सिवा अन्य कुदेवादि व्यवहार में भी आदर करने योग्य नहीं हैं। जिसका अन्तर में परम शान्त स्वभाव है, वह उसी की रुचि करता है; उसे किसी का भय नहीं है। वह बाहरी संयोगों को इष्ट-अनिष्ट नहीं मानता है।
क्रोधीपागलहाथी अभीआकरघेरेएवंमारे; तथापिवह नित्य परमात्मपद की निःशंकदृष्टिएवंसमताकी सावधानीवालाहै, उसे पूर्णपदलेने की तैयारी है। ज्ञानी भक्ति की अहिंसावृत्तिका बाहर में असर पड़ेही,यह आवश्यक नियम नहीं है। कई बार सिंह आदिसच्चे मुनि पर भी आघात करते देखे गये हैं। यदि भक्ति के पुण्य का उदय होतो उससमयक्रूर हाथीभी उसका कुछनहींकरसकता ।सम्यग्दृष्टि निःशंक एवं निर्भय रहता है। यहाँ उसकी अस्थिरता की बातेंगौणकी गई हैं।
नित्य, निर्भय, निःशंक, सर्वसमाधानस्वरूप स्वभाव की शरण लेनेवाले को चाहे जैसे सबल कुतर्क हों, कभी भ्रमित नहीं करते।
काव्य ३९ भिन्नेभ-कुम्भ-गलदुज्ज्वल-शोणिताक्त
मुक्ता-फल-प्रकर-भूषित-भूमि-भागः। बद्धक्रमः क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ।।३९।।
हिन्दी काव्य अति मद-मत्त-गयन्द कुम्भथल नखन विदारै । मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै ।। बाकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोलै ।
भीम भयानक रूप देखि जन थरहर डोलै ।। ऐसे मृगपति पगतलैं, जो नर आयो होय ।
शरण गये तम चरण की, बाधा करै न सोय ।।३९ ।।
अन्वयार्थ - (भिन्न इभ-कुम्भ) भिन्न किये हुए अर्थात् विदारे हुए हाथी के गण्डस्थल से (गलत् उज्ज्वल) निकल रहे धवल-श्वेत तथा (शोणित-अक्त) रक्त से लिप्त (मुक्ता-फल-प्रकर) गजमोतियों के समूह से (भूषित) सुशोभित कर दिया है (भूमि-भागः) पृथ्वी का भाग जिसने - ऐसा (बद्ध-क्रमः) अपने पराक्रम को समेटकर आक्रमण करने के लिए कटिबद्ध छलाँग मारता हुआ (हरिण अधिपः अपि) सिंह भी (क्रम-गतम्) अपने पंजों के बीच पड़े हुए, (ते) आपके (क्रम-युगाचल-संश्रितम्) चरण-शरण में आये हए भक्त पर (न आक्रामति) आक्रमण नहीं करता है। हिंसक, क्रूर, शिकार करने को उद्यत सिंह भी आपके भक्त के समक्ष अपनी नैसर्गिक क्रूरता को छोड़ देता है।
काव्य ३७पर प्रवचन निश्चय से नित्य, निर्भय, निःशंक, सर्वसमाधानस्वरूप, निजस्वभाव की शरण लेनेवाले को तथा व्यवहार से पंचपरमेष्ठी तीर्थंकर भगवन्तों की शरण में रहनेवाले को कोई भी भय या कुतर्क भयभीत व भ्रमित नहीं कर सकते।