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भक्तामर प्रवचन
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यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि - हे भगवन ! आपका भक्त कर हिंसक सिंह के भय से भी नहीं डरता; क्योंकि उसने आपके चरण-युगल का आश्रय लिया है। चरण-युगल के लिए यहाँ 'क्रम' शब्द आया है। पंचाध्यायी में - 'प्रत्येक द्रव्य की पर्याय क्रमगत, कमसर या क्रमबद्ध ही होती है' - यह बात समझाने के लिए भी पग (चरण) का दृष्टान्त आया है तथा अष्टसहस्री में प्रत्येक द्रव्य की पर्याय समझाने के लिए २८ नक्षत्रों का दृष्टान्त दिया है।
क्रम' का अर्थ पग होता है। यहाँ भी 'क्रम' शब्द पग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पग दायाँ-बायाँ क्रम से उठता है न ? इससे पग को क्रम कहते हैं। वस्तु का परिणमन भी क्रमबद्ध होता है। अत: इस कावय में निश्चय व व्यवहार - दोनों नयों की अपेक्षा अर्थ घटित होता है।
इस काव्य में तीन बातें मुख्य हैं -
१) आपके चरणों की शरण लेनेवाले भक्त को शिकार की तलाश में निर्द्वन्द्व, उछलते-कूदते छलांग लगाते हुए क्रूर भयंकर सिंह का भी भय नहीं होता।
२) कदाचित् वह क्रूर सिंह आक्रमण करे और उसकी पकड़ में भी आ जावे तो भी जिसने आपके चरणों की (आपके द्वारा प्रतिपादित वस्तुस्वरूप की) शरण ली है, वह सदैव निर्भय रहता है।
३) कर्मोदय के विपाक में कैसी भी प्रतिकूलता क्यों न आये, परन्तु धर्मी की दृष्टि नित्यस्वभाव पर ही रहती है, उसे अपने ज्ञानानन्द स्वभाव का आश्रय व आदर है तथा आपके चरणों का आलंबन है, हृदय में आपके प्रति अपार भक्ति है- ऐसे ज्ञानी भक्तों को सिंहादि जैसे क्रर प्राणी भयभीत नहीं कर सकते।
जहाँ सिंह व हाथी की भयंकर लड़ाई में बलवान सिंह ने हाथी के मस्तक को विदीर्ण कर दिया हो. तथा उसहाथी केगंडस्थल प्रदेश से गिरेहए उज्ज्वल (धवल) एवं रक्त से सने हुए लाखों मोतियों का ढेर पृथ्वी पर बिखर गया हो - ऐसे स्थल पर उछलता-कूदता दहाड़ता हुआक्रूर हिंसकसिंह पहले तो आपकेभक्त पर आक्रमण ही नहीं करता । यदि कदाचित्कर्मोदयवशआक्रमण कर भी देतोआपकेचरणकमल रूप पर्वतों की शरण में आया हुआ आपका भक्तडरता नहीं है।
अखण्ड एवं नि:शंक स्वभावी आत्मा की पर्याय में, जहाँ स्वभाव का आश्रय है; श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र ही जिसका जीवन है, पूर्णज्ञानी सर्वज्ञ वीतरागी
काव्य-३९ की जिसको दृढ़ प्रतीति है, उसे घोरतम कर्म का उदय हो, संयोग में घोर प्रतिकूलता दिखाई देती हो; तथापि ऐसा धर्मी जीव कभी डरता नहीं है।
चारों ओर से किसी ने घेर लिया हो, बाह्य में कोई खूब निन्दा करता हो, कुतर्क करता हो, अपयश करता हो, प्रतिकूलताओं का पार न हो, तथापि हे नाथ ! आपका भक्त किसी प्रकार के भ्रम में नहीं पड़ता। "मैं (आत्मा)
अनन्तवीर्य का धनी हूँ - इसका आश्रय छूटने पर धर्म नहीं हो सकता तथा नित्यस्वभाव के आश्रय से ही धर्म का लाभ होता है" - ऐसे दृष्टिवन्त पुरुष को प्रतिकूलतायें प्रभावित नहीं कर सकतीं। वह निश्चय से अपने स्वभाव की ओर और व्यवहार से मात्र पंच परमेष्ठी की ही शरण में रहता है।
निर्भय स्वभाव ही शरणभूत है। जब सुकौशल मुनिराज को सिंह खा रहा था, तब क्या सुकौशल मुनिराज ने भगवान की भक्ति नहीं की होगी ? यदि मन में ऐसा प्रश्न आये तो उसका समाधान यह है कि - भाई ! जहाँ जो जैसा जिन कारणों से बनाव बनना हो, कार्य होना हो, वैसा ही बनाव बनता है - कार्य होता है; वहाँ उसको वैसे ही विकल्पादि निमित्त होते हैं। पंचाध्यायी में 'प्रत्येक द्रव्य की पर्याय क्रम-क्रम में होती है' - ऐसा कहा है। हे नाथ ! तेरी चरण-शरण में भी प्रत्येक पर्याय क्रम से होती है - जो ऐसा निर्णय कर स्वभाव-सन्मुख होकर ठहरा है, उसे संसार में किसीप्रकार का भय नहीं होता। जैसा भगवान ने देखा होगा, वैसा ही होगा तो फिर हमें क्या करना ? इस जगत में केवलज्ञान है, तीन लोक व तीन काल का ज्ञान है, जो ऐसा निर्णय करे; उसकी अल्पज्ञ पर्याय सर्वज्ञ स्वभाव के सन्मख होकर सर्वज्ञता को स्वीकार करती है तथा निमित्त, राग एवं अल्पज्ञता का आश्रय छुटकर, कर्त्तापने का अहंकार नष्ट हो जाता है. स्वभाव के आलंबन से उसकी दिशा ही पलट जाती है। जहाँ कर्तापने की आकुलता गई, वहाँ ज्ञातापने का पुरुषार्थ तथा निराकुलता हो जाती है।
'अन्तर में ज्ञान आनंद स्वभाव है' - ऐसा दृष्टि से जिसको द्रव्य स्वभाव का आश्रय हो जाता है, उसको जगत में कोई भयभीत करनेवाला नहीं है। पर की शरण माननेवाले के भय रहता है। ज्ञायक स्वभाव की दृष्टि होने पर आत्मा का मरण भय छूट जाता है; क्योंकि आत्मा मरता ही नहीं है।