Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 58
________________ ११४ भक्तामर प्रवचन महिमा बताने के लिए या पुण्य हितकारी है - ऐसा बताने के लिए नहीं किया जाता; किन्तु जगत पूज्य त्रिकालवेत्ता सर्वज्ञ के तीर्थंकरत्व का भान कराने के लिए किया जाता है। तीर्थंकर के तीन छत्र उनके तीन जगत का परमेश्वरपना बता रहे हैं। साधारण मनुष्य छत्र को हाथ से पकड़कर चलता है, किन्तु आपको ऐसा नहीं करना पड़ता है, आपके स्वाभाविक पुण्य योग से छत्र निरालम्बी होते हैं। क्षायिक सम्यक्त्वी इन्द्र भी आपकी वन्दना करते हैं। भगवान् ! तीन छत्र आपसे ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो आप ही तीन लोक के स्वामी हैं। इसप्रकार आठ प्रतिहार्यों में से चौथे प्रातिहार्य 'तीन छत्र' का वर्णन किया। हे नाथ! आपकी वाणी बहुत गम्भीर है । वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान कराने में एक मात्र सनिमित्त है, आनन्ददायक है। अतएव देवगण हर्षविभोर होकर आपकी वाणी सबको सुनाने के लिए ही मानो दुंदुभि बाजे बजा-बजाकर आमंत्रण दे रहे हैं। महामुनि की रीति : लौकिक-रीति से विरुद्ध लोक पाप क्रियाओं में आसक्त होकर प्रवर्तन करता है, मुनि पाप क्रिया का चिंतबन भी नहीं करते। लोक अनेक प्रकार से शरीर की संभाल और पोषण करता है, परन्तु मुनिराज अनेक प्रकार से शरीर को परीषह उत्पन्न करके उन्हें सहन करते हैं। • लोक को इन्द्रिय-विषय अत्यन्त मिष्ट लगते हैं, जबकि मुनिराज विषयों को हलाहल विष समान जानते हैं। • लोक को अपने पास जन-समुदाय रुचिकर लगता है, मुनिराज दूसरों का संयोग होने पर खेद मानते हैं। लोक को बस्ती सुहावनी लगती है, किन्तु मुनि को निर्जन स्थान ही प्रिय लगता है। कहाँ तक कहें? महामुनि की रीति लौकिक-रीति से विरुद्ध होती है। - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय : पृष्ठ २२ काव्य ३२ गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभाग स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्षः। सद्धर्मराज-जय-घोषण-घोषकः सन् खेदुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ।।३२ ।। हिन्दी काव्य दुन्दुभि-शब्द गहर गम्भीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारै धीर। त्रिभुवन-जन शिवसंगम करें, मान जय-जय व उच्चरै।।३२।। अन्वयार्थ - हे भगवान् ! (गम्भीर-तार-रवपूरित-दिग्विभागः) अपनी गम्भीर-स्पष्ट और मधुर ध्वनि से दिग्मण्डल को गुंजाता हुआ (त्रैलोक्य लोक शुभसङ्गम भूति-दक्ष) तीनों लोकों के प्राणियों को सत्समागम का वैभव प्राप्त कराने की घोषणा करता हुआ (सद्धर्मराज-जय-घोषणघोषकः सन्) समीचीन जिनधर्म एवं उसके प्रणेता तीर्थंकर देवों की जय-जयकार करता हुआ (दुन्दुभिः) नगाड़ा (ते) आपके (यशसः) यश का (प्रवादी) विशदकथन करता हुआ (खे) गगन में (ध्वनति) गूंज रहा है। काव्य ३२ पर प्रवचन अब देव-दुन्दुभि का वर्णन करते हैं। जैसे - शादी के समय बाजे बजाते हैं और कहते हैं कि यह नया प्रसंग है, इसलिए उत्सव मनाना है; वैसे ही देव भगवान के समवशरण में दिव्य दुन्दुभि बजाते हैं और कहते हैं कि हे जीवों! यदि सत्समागम करना चाहते हो तो यहाँ आओ। आत्मा की ऋद्धि देखनी हो तो यहाँ आओ। ___जैसे पहले सभा इकट्ठी करने के लिए थाली बजाकर घोषणा की जाती थी; वैसे ही देव नगाड़े बजाते हैं। उनकी आवाज दशों दिशाओं में गूंजती है। भगवान की दिव्यध्वनि जीवों को सुख-सम्पत्ति प्राप्त कराने में समर्थ है। ऐसा समागम अनन्त काल में मिला है। लाख काम छोड़कर इस वाणी को सुनने को आओ ऐसा निमंत्रण इस देव-दुन्दुभि द्वारा दिया जाता है। जैसे - विवाह की

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