Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 40
________________ भक्तामर प्रवचन प्रयोजन ही नहीं रहता; उसीप्रकार आपके मुख-चन्द्र के आगे सूर्य-चन्द्र का तेज फीका पड़ गया है। शास्त्रों में कथन आता है कि भरतक्षेत्र में जब मनुष्यों का पुण्य क्षीण होने पर कल्पवृक्षों का प्रकाश कम होने लगा, तब सूर्यास्त एवं चन्द्रोदय आदि को देखकर लोग भयभीत होने लगे कि यह क्या हो गया है ? तब ऋषभदेव के पिता नाभिराय ने उन्हें समझाया - "भाई ! कल्पवृक्ष के पूर्ण तेजस्विता के काल में सूर्य-चन्द्र का प्रकाश छिप जाता था, इसलिए वे दिखते नहीं थे। अब पुण्य क्षीण होने पर कल्पवृक्षों का तेज घटने से वे सूर्य-चन्द्र दिखने लगे हैं। शाश्वत भोगभूमि में रहनेवाले युगलिया जीवों को तो सूर्य-चन्द्र के प्रकाश की आवश्यकता ही नहीं होती, क्योंकि उन्हें प्रकाशवान कल्पवृक्ष सुलभ होते हैं। यहाँ श्रीमानतङ्गाचार्य उत्प्रेक्षा अलंकार में कहते हैं कि तीर्थंकर ऋषभदेव के मुख-मंडल की कांति से ही मानो सूर्य-चंद्र का प्रकाश फीका पड़ गया है। हेनाथ ! जब आपके केवलज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाश पूर्णरूप से प्रगट हुआ है तब सूर्य-चन्द्रादि की क्या आवश्यकता? तथा आत्मा के असंख्य प्रदेशों में जब श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र का बीज अंकुरित, पुष्पित व फलित होकर केवलज्ञान का धान्य पक गया है, तब बाह्य अनुकूलता रूपी मेघों की क्या आवश्यकता? हमारे आत्मस्वभाव के सिवा अन्य किसी पदार्थ से हमें कोई प्रयोजन नहीं है। छद्वैगुणस्थानवर्ती भावलिंगी मुनिराज की शंका का समाधान गृहस्थ दशा में तीर्थंकर देव को देखने से हो जाता है। तीर्थंकर के पुण्य की कणिका भी अचिन्त्य एवं अनुपम है। अनन्त द्रव्यों की तीनों काल की अनन्त पर्यायों को एक साथ जाननेवाला ज्ञान आपको प्रगट हुआ है। ऐसी शक्ति की प्रगटता अन्य किसी की नहीं होती। जिनवर की आज्ञा के विरुद्ध बोलना महापाप है कषाय के वशीभूत होकर यदि कोई जिनवर की आज्ञा के विरुद्ध एक अक्षर भी कहे तो उससे इतना पाप होता है कि जिससे वह जीव निगोद चला जाता है। निगोद में जाने के पश्चात् जिनधर्म को प्राप्त करना अतिशय कठिन हो जाता है। इसलिए अपनी पद्धति बढ़ाने के लिए व मानादि कषाय का पोषण करने के लिए जिनवाणी के विरुद्ध रंचमात्र भी उपदेश देना योग्य नहीं है। - कविवर श्री भागचन्दजी छाजेड़ उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला काव्य २० ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु । तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ।।२०।। हिन्दी काव्य जो सुबोध सोहै तुम माहि, हरि नर आदिक में सो नाहिं। जो दुति महा-रतन में होय, काच-खण्ड पावै नहिं सोय ।।२०।। अन्वयार्थ - (कृतावकाशम्) अनन्त गुण-पर्यायात्मक पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला (ज्ञानं यथा त्वयि विभाति) केवलज्ञान जिसप्रकार आपमें सुशोभित होता है (तथा हरि-हरादिषु नायकेषु न एवम्) वैसा हरि-हरादिक अर्थात् विष्णु-ब्रह्मा-महेश आदि लौकिक देवों में है ही नहीं। (स्फुरन्मणिषु तेजः यथा महत्त्वं याति) स्फुरायमान महारत्नों में जैसा तेज होता है (किरणआकुले अपि काच-शकले तु न एवम्) किरणों की राशि से व्याप्त होने पर भी काँच के टुकड़ों में वैसा तेज नहीं होता। काव्य २० पर प्रवचन यहाँ केवलज्ञान की महिमा करते हुए कहते हैं कि हे नाथ ! आपका ज्ञान समस्त विश्व का ज्ञाता होने से पूर्ण शोभा को प्राप्त है। आपके ज्ञान की पूर्णता में समस्त विश्व की समस्त पर्यायें परिलक्षित होती हैं। देखो केवलज्ञान की महिमा ! केवलज्ञान जानता है कि अनन्त पदार्थों की अमुक स्थान में अमुक पर्यायें होंगी। ऐसी उत्कृष्ट पूर्ण पर्याय को प्राप्त केवलज्ञानी सब द्रव्यों की समय-समय की समस्त पर्यायों को जान लेते हैं। आपके ज्ञान के समक्ष अन्य किसी की कुछ भी महत्ता नहीं है। तीन लोक और तीन काल में केवली के सिवा अन्य किसी को कुछ भी ऐसा ज्ञान नहीं होता। जिसे केवलज्ञान होता है; उसके पास स्त्री, वस्त्र-पात्र, माला, आभूषण, हथियार आदि कुछ नहीं होते। जिसे केवलज्ञान हो, उसके शरीर की दशा नग्न ही होती है तथा उसे न राग होता है और न रोग होते हैं, न क्षुधा-तृषादि १८ दोष होते

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