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काव्य १८
काव्य १८ नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकार
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्तिः __ उद्योतयज्जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम् ।।१८।।
हिन्दी काव्य सदा उदित विदलित मनमोह, विघटित नेह राहु अवरोह । तुम मुख-कमल अपूरब चंद, जगत-विकासी जोति अमन्द।।१८।।
अन्वयार्थ - (भगवन्) हे जिनेन्द्र देव ! (तव मुखाब्जं नित्य उदयं) आपका मुखमण्डल नित्य उदित रहनेवाला विलक्षण चन्द्रमा है, जिसने (दलितमोह-महान्धकार) मोहरूपी अन्धकार को नष्ट कर दिया है, (अनल्पकान्तिः) जो अत्यन्त दीप्तिमान है, (न राहुवदनस्य गम्यं न वारिदानां गम्यम्) जिसे न राह ग्रस सकता है और न बादल छिपा सकते हैं तथा जो (जगत् उद्योतयत्) जगत को प्रकाशित करता हुआ (अपूर्व-शशाङ्क-बिम्बं विभ्राजते) अलौकिक चन्द्रमण्डल की तरह सुशोभित होता है।
यहाँ इस काव्य में लौकिक चन्द्रमा की हीनताओं एवं जिनेन्द्र देव के अद्वितीय मुखचन्द्र की विशेषताओं का तुलनात्मक विश्लेषण किया है और जिनेन्द्र देव के मुखचन्द्र के ज्ञानालोक को अद्वितीय, अनुपम, अलौकिक और स्तुत्य बताया गया है।
काव्य १८पर प्रवचन हे नाथ ! आपने ज्ञानस्वभाव की सावधानी से अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश किया है और वह ज्ञानस्वभाव अन्य भव्यजीवों के मोहरूपी अन्धकार के नाश करने में निमित्त है। गहन बादलों से आवृत्त चन्द्रमा तो दिखाई नहीं पड़ता; किन्तु आपका ज्ञानानन्द स्वभाव पूर्ण विकसित हो गया है, वह कभी किसी से आवृत्त नहीं होता; अत: आपके आत्मा एवं शरीर की जगत के किसी भी पदार्थ से उपमा नहीं दी जा सकती।
परमात्मा की दशा देखो ! केवलज्ञान दशा में लाखों वर्ष शरीर सहित रहने पर भी तीर्थंकर भगवान को आहार-पानी की आवश्यकता नहीं होती। जो वीतराग देव को आहार-पानी लेनेवाला मानता है, उसे पवित्रता एवं पुण्य की समझ नहीं है। जो वीतरागी १८ दोष रहित, अनन्तवीर्यवान भगवान को शरीर के रक्षण के लिए आहार-पानी लेने वाला माने, उसे निश्चय-व्यवहार की खबर नहीं है। लौकिक जन अहंत देवाधिदेव के स्वरूप को विकृत रूप में मानते हैं, किन्तु वह वैसा नहीं है। जिनके पूर्ण वीतरागता एवं केवलज्ञान प्रगटे, उनके बाह्य में परम औदारिक शरीर होता है और उपसर्ग नहीं होता। वे जमीन पर चलें या यक्षमन्दिर में ठहरे या कुम्भकार की दुकान में ठहरे - ऐसा माननेवाले वास्तविकता को ही नहीं समझते । सम्यग्दर्शन-ज्ञान के आराधक जीव का पुण्य भी अद्भुत होता है, परन्तु वर्तमान में तो ऐसे पुण्यवान राजा भी दिखाई नहीं पड़ते। प्रजा से कर न ले, किन्तु सम्पत्ति आदि का दान करनेवाला राजा भी वर्तमान में नहीं मिलता तो फिर सर्वज्ञदेव और उनकी धर्मसभा (समवशरण) के दर्शन कैसे सुलभ हों?
तीर्थंकर भगवान के समवशरण (धर्मसभा) में सिंह, सर्प तथा स्वर्गलोक के इन्द्र व असंख्य देव उपस्थित होते हैं। भगवान के केवलज्ञान होने से पूर्व ही क्या - उनके जन्म से भी पूर्व, उनकी माता के महल के आसपास रत्नों की वर्षा होती है। वे मुनिदशा में जहाँ आहार लें वहाँ देवों द्वारा पंचाश्चर्य प्रगट किए जाते हैं कि - यह कैसा महादान है। यह सब तीर्थंकर प्रकृति के परिणाम हैं। तीर्थंकर में पवित्रता तो पूर्ण होती है, उनका पुण्य भी अनुपम व अजोड़ होता है।
जिसे ऐसे सातिशय पुण्य का बन्ध नहीं है और जो केवलज्ञानी के स्वरूप में शंका करता है, उसे पवित्रता की खबर नहीं है और पुण्य के उत्कृष्ट स्वरूप की श्रद्धा भी नहीं है। तीर्थकर के जन्मकाल में जिन रत्नों की वर्षा होती है. वे साधारण रत्न नहीं होते। देवों ने श्री नेमिनाथ भगवान के जन्म के समय अपार रत्न बरसाये थे। कोई व्यापारी उनमें से कुछ रत्नों को राजा जरासन्ध के पास ले गया और उसने आश्चर्यचकित राजा को बताया कि नेमिनाथ भगवान के जन्म के समय ऐसे रत्नों की वृष्टि हुई । राजा ने मंत्री से पूछा कि जिनके जन्म के समय