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भक्तामर प्रवचन
आपके केवलज्ञान दशा प्रगट हुई, चैतन्य सूर्य का उदय हुआ, जो कभी भी अस्त नहीं होता । सूर्य तो ताप वाला है, किन्तु आप स्वभाव से शीतल हैं। उसमें रहनेवाले एकेन्द्रिय जीव व देवगण तो मृत्यु को प्राप्त होते हैं, किन्तु आपका केवलज्ञानमय चैतन्य सूर्य अविनाशी है। अतः आपके लिए सूर्य की उपमा समीचीन नहीं है।
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जिसको निरन्तर प्रकाशमान चैतन्यस्वभाव का अंतरंग में आलंबन एवं श्रद्धान हो, उसे निज-स्वभाव की भक्ति होती है। हे नाथ ! मैं अपने स्वभाव का आश्रय लेकर केवलज्ञान प्रगट करने के मार्ग पर चल पड़ा हूँ, अब कर्म विघ्न नहीं डाल सकते हैं। साधक दशा में सम-स्वभावी त्रिकाली, चैतन्यसूर्य के भानपूर्वक भक्ति का शुभ-राग होने से पुण्य बँधता है, उससे देवगति मिलती है तथा धीरे-धीरे अंतरंग में राग का अभाव होते-होते पूर्ण दशा की प्राप्ति होती है।
प्रश्न : वीतरागता की भक्ति करने का अधिकारी कौन है ?
उत्तर : श्रीमानतु आचार्य ने भक्तामर में आदिनाथ भगवान की स्तुति की है, जो इस भरत-क्षेत्र में वर्तमान युग में हुए चौबीस तीर्थंकरों में से प्रथम तीर्थंकर थे। जिनका ज्ञान, दर्शन, श्री, सुख, वीर्यरूप अनन्त चतुष्टय से परिपूर्ण स्वभाव प्रगट हो चुका था। जिनकी दृष्टि एवं स्थिरता से रागरहित दशा प्रगट हुई, उ वीतराग भगवान का भक्त कौन हो सकता है ? वास्तव में तो जो आत्मस्वभाव का भक्त है, वही ऐसे भगवान का सच्चा भक्त हो सकता है। जो पुण्य-पाप का भक्त है अर्थात् जिसे पुण्य-पाप की महत्ता भासित होती है, वह वीतरागी भगवान का सच्चा भक्त नहीं है । एक समय तीन लोक को जाननेवाले ज्ञान - स्वभाव की महत्ता जान लेने पर पुण्य-पाप की गौणता हो ही जाती है। वास्तव में वही ऐसे परमात्मा की भक्ति कर सकता है, जिसे यह दृढ़ निश्चय हो जाये कि परमार्थ से पुण्य-पाप मेरे स्वभाव में नहीं हैं।
हे नाथ! हम तो आपके बालक हैं। हमने आपको अपना नेता बनाया है।
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हमारा स्वभाव शक्तिरूप से परिपूर्ण है । हे नाथ ! हम अपने अंतरंग की प्रभुता के स्तवन से ही आपका स्तवन करते हैं।
हे भगवन् ! अन्य सभी उपमायें आप के लिये ओछी पड़तीं हैं, आप अनुपमेय हैं। कुछ लोग आपके केवलज्ञान को सूर्य की उपमा देते हैं, परन्तु वह उपमा भी तुच्छ है; क्योंकि सूर्य सन्ध्याकल के समय अस्त हो जाता है, परन्तु आपका केवलज्ञान अविनाशी है। सूर्य को राहू ग्रस लेता है, परन्तु आपके ज्ञान को कोई ग्रस (आवृत्त) नहीं सकता है। कभी-कभी घने बादलों में सूर्य के ढक जाने से सूर्य दिखाई नहीं देता, जबकि आपका ज्ञान नित्यउद्योतरूप ही रहता है, कर्म का आवरण नहीं रहता है। ऐसे तीन दोषों से युक्त सूर्य से आपकी उपमा कैसे दी जा सकती है ? अर्थात् नहीं दी जा सकती है। सूर्य तो जम्बूद्वीप के अर्द्धभाग ही प्रकाशित करता है; परन्तु आपका केवलज्ञान एक ही समय में तीन लोक को प्रकाशित करता है। सूर्य तो बारीबारी से क्षेत्र परिवर्तन करता हुआ सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है, परन्तु आपका चैतन्य स्वरूप सर्वत्र, सर्वदा, सबको, एक साथ प्रकाशित करता है। इस लोक में किसी को देव दिखाई दे तो आश्चर्य लगता है, परन्तु केवलज्ञान सम्मुख देव की क्या महत्ता ?
मात्र व्यवहार, राग एवं संयोग को मुख्यता देने वाले गीत भगवान की भक्ति के गीत नहीं हैं, ये तो पामरता के गीत हैं। जो वस्त्र एवं शस्त्र सहित देवों की स्तुति करता है, वह संसार-परिभ्रमण की रुचि की स्तुति करता है। जिनके पूर्ण दशा प्रगट हुई तथा किंचित् भी राग नहीं रहा ऐसे वीतरागदेव के शस्त्र, स्त्री, वस्त्राभूषणादि का शृंगार नहीं होता है। जिसे ऐसे वीतराग प्रभु का ख्याल है, अपने स्वभाव का भान है; वह ही भक्ति में लीन होकर वीतराग प्रभु का स्तवन करता है।