Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 36
________________ भक्तामर प्रवचन ऐसा नहीं है। आपकी केवलज्ञान ज्योति व्यवहार रत्नत्रय से गम्य नहीं है। आपके ज्ञान की महिमा अद्भुत है। आपके ज्ञान को कौन नष्ट कर सकता है? हवा लौकिक दीपक को हिलाती है एवं बुझा देती है; किन्तु अनन्त ज्ञानानन्द दीपक को कौन बुझा सकता है ? केवलज्ञान अनन्तकाल तक शाश्वत रहता है। अहा हा ! परमात्मस्वभाव की व्यक्तता कैसी अद्भुत आनन्दमय है ? भगवान पुन: जन्म नहीं लेते, क्योंकि प्रथम वीतरागदृष्टि होते ही उन्होंने राग का आदर करना सर्वथा छोड़ दिया था। फिर वीतरागी चारित्र होने से राग का पूर्णतया अभाव हुआ। वह ऐसे परम पुरुषार्थी हुए, उनके दोष और दोष के कारणों का सर्वथा अभाव हुआ। जैसे जला हुआ बीज पुन: उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही केवलज्ञानी और सिद्ध परमात्मा फिर जन्म नहीं लेते, क्योंकि जन्म-मरण के बीजरूप राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो गया। आपकी वीतराग, अविकारी परिणति में किंचित्मात्र भी राग-द्वेष नहीं हैं तथा किसी की सहायता की आवश्यकता भी नहीं है। जिसप्रकार दीपक तेल आदि की सहायता की अपेक्षा नहीं है - यही इसकी महिमा है। लौकिक दीपक किसी भी बाधा के होने से बुझ जाते हैं, किन्तु आपका केवलज्ञान दीपक अविनाशी है। ___अगले काव्य में यह बताया है कि दीपक की उपमा तो दूर रही; परन्तु सूर्य की उपमा भी आप पर लागू नहीं पड़ती है। सूर्य प्रात:काल उदय होता है एवं सन्ध्याकाल अस्त हो जाता है, किन्तु आपका केवलज्ञान उदय होने पर अस्त नहीं होता। लोग सूर्य को नमस्कार करके सुखी होने की प्रार्थना करते हैं; किन्तु सूर्य ऐसा नहीं कर सकता। जबकि चैतन्य सूर्य को नमस्कार किया जाय तो अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। चैतन्य सूर्य अनन्त किरणों द्वारा केवलज्ञानरूप से प्रगट हुआ है। वह अनुपमेय है, जगत में कोई पदार्थ उसकी उपमा योग्य नहीं है। काव्य १७ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्य: स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभाव: सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र लोके ।।१७।। हिन्दी काव्य छिपहुन लुपहु राहु की छाँहि, जग-परकाशक हो छिन माहिं। घन अनवर्त्त दाह विनिवार, रवि अधिक धरो गुणसार ।।१७।। अन्वयार्थ - (मुनीन्द्र ! तव सूर्यातिशायि महिमा अस्ति) हे मुनीश्वर ! आपकी महिमा सूर्य से अधिक अतिशयवाली है। क्योंकि (त्वम् कदाचित् अस्तं न उपयासि) आप कभी भी अस्त [अदृश्य] नहीं होते। (न राहु-गम्य: असि) राहू नामक ग्रह के द्वारा कभी ग्रसित नहीं होते (सहसा युगपत् जगन्ति स्पष्टीकरोषि) तथा एक साथ एक समय में सहजता से तीनों लोकों को प्रकाशित करते हो, (न अम्भोधर-उदरनिरुद्ध-महा-प्रभावः) आपका महाप्रभाव बादलों के उदर में अवरुद्ध नहीं होता। अत: आपकी उपमा सूर्य से भी नहीं दी जा सकती। सूर्य एक तो उदय होकर अस्त हो जाता है, उसे राहू ग्रस लेता है। सूर्य अपना प्रकाश गुहा-कन्दराओं तक नहीं पहुंचा पाता, उसका प्रताप बादलों की ओट में छुप जाता है। इसप्रकार सूर्य की महिमा सीमित है और आप की महिमा असीम है। अत: आप की उपमा सूर्य से नहीं की जा सकती। काव्य १७ पर प्रवचन हे प्रभु ! आपको सूर्य की कैसे उपमा दी जावे ? क्योंकि वह तो जड़ - अचेतन है और आप सम-स्वभावी चैतन्य सूर्य हो । वह सूर्य अस्त हो जाता है।

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