Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 44
________________ भक्तामर प्रवचन काव्य-२२ हैं। वालों को जन्म देने के बजाय तो पत्र न जनना ही ठीक है: यदि जने तो पंचकल्याणक का स्वामी बननेवाले पत्र को ही जन्म देना श्रेयस्कर है। ऐसे वीतरागदेव को जन्म देनेवालों की स्तुति वीतरागता के रुचिवन्त व्यक्तियों द्वारा ही हो सकती है। श्री मानतुङ्गाचार्य ने भगवान के ऐसे भव्य स्तवन की रचना की है। जिसमें सच्चा मोती हो, वह सीप भी उच्चकोटि की होती है; वैसे ही हे प्रभु ! आप जैसे पुत्र को साधारण माता जन्म नहीं दे सकती। तीर्थंकर जन्म के समय ही मति, श्रुत, अवधि तीनज्ञान के धारी होते हैं । इन्द्र उन्हें जन्माभिषेक महोत्सव के लिए सुमेरु पर्वत पर ले जाते हैं। वे क्षीर-सागर के जल से परिपूर्ण आठ-आठ योजन के १००८ कलशों से भावी तीर्थंकर बालक का अभिषेक करते हैं, बाद में उनको वस्त्रादि पहनाकर माता को सौंपते हैं और माता की स्तुति करते हैं कि - तुम्हारा पुत्र हमारा तारणहार है। यह उनका अन्तिम जन्म है, उनके केवलज्ञान प्रगट होगा और ॐकारमय दिव्यध्वनि खिरेगी, वे मोक्षमार्ग एवं स्वतंत्रता का उद्घोष करेंगे। अहो ! हम आत्मा की ऋद्धि समझें, इसमें तीर्थंकर निमित्त हैं। हे माता! तुम महाभाग्यवती हो, त्रिलोकीनाथ की माँ हो । नाथ उसे कहते हैं, जो असुरक्षित की रक्षा करता है और अशुद्ध को शुद्ध बनाता है - इस अपेक्षा से साधक अपने साध्यरूप परमेश्वर आत्मा को लक्ष्य में रखकर आपकी वन्दना करता है कि - हे नाथ ! आप मेरी निर्मलता की वृद्धि में निमित्त हो, इसीलिए ही मानो आपकी माता ने मात्र आपको ही जन्म दिया है। आपके चरणों की वन्दना चाहे इन्द्र करे या गणधर करे, किन्तु आपको उसका गर्व नहीं होता। आप तो अंतरंग में समभाव का आश्रय करते हुए, निर्ग्रन्थ परमेष्ठीपद प्रकटकर, पूर्ण परमात्मपद को प्राप्त करनेवाले हो; अन्य मत में कोई ऐसा परमात्मा नहीं है। जैसे आकाश मंडल में अट्ठाईस नक्षत्र भिन्न-भिन्न दिशाओं से उदित होते हैं, किन्तु हजारों किरणों से युक्त सूर्य को तो पूर्व दिशा ही प्रगट करती है, उसीप्रकार चार गति में भ्रमण करनेवाले जीवों को जन्म देनेवाली तो अनेक मातायें हैं, किन्तु आप जैसे पुत्र को जन्म देनेवाली माँ तो विरल ही हैं। आपके समान ही आपके माता-पिता भी महान होते हैं, वे भी निकट मोक्षगामी होते हैं। पिता तो उसी भव में या अगले दो भवों में मोक्ष चले जाते हैं और माता को दो भव और धारण करने पड़ते हैं, आप भाग्यशाली माता के अद्वितीय रत्न हे नाथ ! आप ही परमपुरुष हैं, आप ही पुरुषोत्तम हैं, राज्य या देवत्व मिलने से कोई परमपुरुष नहीं होता, बल्कि पूर्णता प्राप्त करनेवाला ही परमपुरुष है। अज्ञानी जीव अपने आपको महान समझता है, किन्तु स्तोत्रकार आचार्य श्री मानतुङ्ग कहते हैं कि आप ही महान हैं; क्योंकि आपने परमात्म शक्ति का विकास किया है; शरीर होते हुए मुक्त पद (अरहंत अवस्था) प्रकट की एवं अनन्त आनन्द प्रकट किया है। आप विदेह-मुक्त दशा भी प्राप्त कर चुके हैं, अब पुनः संसार में नया शरीर धारण नहीं करेंगे। जिसे आत्मा के अनन्तगुणों की रुचि हुई, वह आत्मा परमात्मा बनने योग्य है - ऐसी दृष्टिवाला ही अन्तर में पूर्ण परमात्मशक्ति का अवलम्बन लेता है और वही स्तुति का निश्चय एवं व्यवहार स्वरूप जानता है। जो आज तक परमात्मा हुए हैं, वे सब अन्तरस्वभाव का अवलंबन लेने से ही हुए हैं। जिसे परमपद की रुचि है, वह तदनुरूप ही स्तुति करता है। परमेश्वर पद की रुचि वाला जीव संयोग एवं विकार की रुचि से रहित हुआ है, अतः वह तीर्थंकर की सच्ची स्तुति कर सकता है। हे नाथ ! आपने पूर्णता प्राप्त करने का उपाय अन्तर में पूर्ण स्वभाव का साधन बताया है, अतः मैं आपको सर्वोत्तम मानता हूँ। आपकी स्तति से मेरा मत जैसा संताप होता है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं होता है। वह घर धन्य है ! अरे भाई! तुझे आत्मा के तो दर्शन करना नहीं आता और आत्मा के स्वरूप को देखने हेतु दर्पण के समान जिनेन्द्रदेव के दर्शन भी तू नहीं करता तो तू कहाँ जायेगा? भाई! जिनेन्द्र भगवान के दर्शन-पूजन भी न करे और अपने को जैन कहलावे - ये तेरा जैनपना कैसा? जिस घर में प्रतिदिन भक्तिपूर्वक देव-गुरु के दर्शन-पूजन होते हैं, मुनिवरों आदि धर्मात्माओं को आदरपूर्वक दान दिया जाता है, वह घर धन्य है ! इसके बिना घर तो श्मशानतुल्य है। ऐसे धर्मरहित गृहस्थाश्रम को तो हे भाई! समुद्र के गहरे पानी में तिलाञ्जलि दे देना, नहीं तो यह तुझे डुबो देगा। - आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी : श्रावक धर्मप्रकाश, पृष्ठ : ९२

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