Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ भक्तामर प्रवचन रत्नों की वर्षा हो - ऐसा पुण्यवान कौन जीव है ? क्या कृष्ण मेरे से अधिक समर्थ हो गये? मंत्री ने कहा - "मुझे इस बात का ज्ञान हो तो गया था, किन्तु आपको बताया नहीं था; क्योंकि बताने पर आप उनके साथ मुकाबला करना चाहते, किन्तु आप उनकी तुलना में सफल नहीं होते; क्योंकि इन्द्र और देवता भी उनके सहायक हैं।" राजा को ईर्ष्या हुई कि मैं तीन खण्ड का अधिपति हूँ और हजारों देवता भी सहायक हैं, फिर भी मेरे यहाँ ऐसे रत्नों की वर्षा नहीं हुई। देखो ! जब तीर्थंकर के जन्म के समय ही ऐसे पुण्य का उदय होता है, तब केवलज्ञान के समय की क्या बात? हे भगवान ! धर्मसभा में आपकी मुखमुद्रा एकरूप स्थिर रहती है और विहारकाल में भी ऐसी ही स्थिरता के दर्शन होते हैं। यह सब उस केवलज्ञान स्वभाव की महिमा है, जो स्वभाव की एकाग्रता से मोह का अभाव प्रगट होने पर प्रगट हुआ है। आपने अन्तर की प्रभुत्व शक्ति के आधार से केवलज्ञान और परम आनन्द प्रगट किया है। आपके मुख का प्रकाश हजारों चन्द्रमा के प्रकाशतुल्य है। पुण्य के परिणामस्वरूप देवों का शरीर बहुत प्रभावान होता है, किन्तु आपके शरीर की शोभा के सामने उनकी प्रभा फीकी पड़ जाती है। काव्य १९ किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा ___ युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तम:सुनाथ । निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि जीव-लोके ___ कार्य कियजलधरैर्जल-भार-नौः ।।१९।। हिन्दी काव्य निश-दिन शशि-रवि को नहिं काम, तुम मुख-चंद हरै तम-घाम। जो स्वभाव उपजै नाज, सजल मेघ तो कौनहु काज ।।१९।। अन्वयार्थ - (नाथ!) हे स्वामिन् ! (युष्मन्-मुखेन्दु-दलितेषु-तम:सु) आपके मुखरूपी चन्द्रमा के द्वारा मोहान्धकार नष्ट हो जाने पर (शर्वरीषु शशिना किम्) रात्रि में चन्द्रमा से क्या प्रयोजन ? (वा) अथवा (अह्नि-विवस्वता किम्) दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन ? [ जैसे कि ] (निष्पन्न-शालि-वनशालिनि) धान्य के वनों (खेतों) की फसल पक जाने पर अर्थात् परिपक्व अनाज से सुशोभित वनों (खेतों) के लिए (जीवलोके) पृथ्वीतल पर (जलभार-ननैः जलधरैः कियत् कार्यम्) पानी के भार से लदे हुए या नीचे को झुके हुए बादलों से क्या प्रयोजन है ? काव्य १९पर प्रवचन हे नाथ ! आपका केवलज्ञान तो सर्वोत्तम है ही, आपके मुख-चन्द्र का प्रकाश भी सर्वोत्तम है। हे नाथ! आपका केवलज्ञानरूपी चैतन्य सूर्य उदित हो गया है। असहायक्षायिक ज्ञान की किसी से तुलना नहीं की जा सकती । हे त्रिलोकीनाथ ! जैसे अनाज पक जाने के बाद मेघ-वर्षा की जरूरत नहीं है; वैसे ही जब आपके मुख-चन्द्र की कान्ति द्वारा अन्धकार का नाश हो गया, तब सूर्य-चन्द्र से क्या प्रयोजन रहा? तथा जैसे भोगभूमि में कल्पवृक्षों के प्रकाश में इतनी चमक होती है कि उनकी चमक के कारण सूर्य-चन्द्रमा दिखाई ही नहीं देते, उनसे कोई शकरकन्दवत् आत्मा आनन्दकन्द है जैसे शकरकन्द के ऊपर की छाल शकरकन्द नहीं है। छाल को निकालने पर अन्दर जो मिठास का पिण्ड है, वह शकरकन्द है। उसीप्रकार भगवान आत्मा में जो शुभाशुभभाव होते हैं, वे ऊपर की छालवत् हैं, वे आत्मा नहीं हैं। शुभाशुभभाव से भिन्न अन्दर जो आनन्दकन्द प्रभु विराजता है, वह आत्मा है। शुभाशुभभाव का लक्ष्य छोड़कर अन्तर्दृष्टि करने पर जो आत्मानुभूति प्रगट होती है - वही सम्यग्दर्शन है, धर्म है। - आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी प्रवचन रत्नाकर, भाग : ४, गाथा : १०२

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80